Wednesday 21 November 2018

गुलाबी नगरी की मेरी पहली यात्रा की कुछ स्मृतियाँ भाग 09.

आज भाग 09 में आप पढ़ेंगे...! मेरी जयपुर यात्रा का मुख्य उद्देश्य और यात्रा का दुःखद अंत.

बस ने एकदम से ब्रेक लगाया और मैं जैसे झटके से नींद में से उठा, तो देखा कि मैं रेलवे स्टेशन पहुंच चुका था। मैं बस से उतरकर अपनी होटल की तरफ बढ़ गया। कुछ ही देर पैदल चलने के बाद मैं होटल पहुंचा और फिर होटल से निकलने की तैयारी करने लगा। मैंने अपने कपड़े और बाकी अस्त-व्यस्त पड़े सामान को व्यवस्थित किया और अपना बैग जमाया और होटल के रिसेप्शन में फ़ोन कर जानकारी दी कि 'मैं अब होटल छोड़ना चाहता हूँ।' जानकारी देने के बाद मैं कमरे से रिसेप्शन के लिए निकल पड़ा। मेरा कमरा 4थें माले पर था, तो मैं लिफ्ट के सहारे नीचे आया और रिसेप्शन काउंटर पर जाकर कमरे की चाबी उन्हें सौंप दी। मैंने अपना बिल मांगा और हिसाब निपटाया। पर अभी तक मेरा सुबह का नाश्ता बाकी था, जो मेरी बुकिंग के साथ मुझे फ्री मिला था। मैंने उसकी मांग की, तो उन्होंने मुझे 2-3 ऑप्शन दिए। मैंने अपने लिए आलू का पराठा पसंद किया, जो उन्होंने कुछ ही देर में मेरे काउंटर पर भेज दिया। मैं अपने सुबह के नाश्ते में अपना पसंदीदा आलू का पराठा खाकर वहां की कुछ खट्टी-मीठी यादों के साथ अपने आगे के मिशन के लिए निकल पड़ा, जो कि मेरा मुख्य मिशन था।
मैं वहां से निकल कर कुछ दूरी तक पैदल ही चला और फिर मुख्य सड़क पर आ गया, जहा से मुझे आगे अपने मिशन को पूरा करने जाने में सुविधा हो।

मैंने वहां खड़े-खड़े अपने मोबाइल में उबर का एप्प डाउनलोड किया और एक उबर मोटरसाइकिल की बुकिंग की, जो कि करीब 10 मिनिट बाद ही मेरे सामने थी। यह उबर मोटरसाइकिल का मेरा पहला सफर था, तो मैं थोड़ा उत्साहित था। मैंने उबर मोटरसाइकिल के ड्राइवर का स्वागत किया और उसने भी मेरा अभिनंदन किया और मुझे एक भगवा हेलमेट पहनने को दिया। उबर ड्राइवर ने भी ऐसा ही एक काला हेलमेट पहन रखा था।
करीब आधा घंटा सफर के बाद मैं मेरे मुख्य उद्देश्य की पूर्ती हेतु निश्चित स्थान पर पहुंच गया। जहा मुझे कई भगवा भाइयों से मिलने का मौका मिला। जिसमें राष्ट्रीय कार्यकारिणी से भी गणमान्य उपस्थित थे, जिन्होंने मेरा बहुत सम्मान के साथ गले लगाकर स्वागत किया। उनसे गले लगना और इतना प्यार पाना वाकई बड़े गर्व की बात थी। बहुत ही खुशी के एहसास वाले उन पलों को भुलाना शायद मेरे बस की बात नहीं है। आज भी उन पलों को याद करता हूँ तो बस उन्ही सपनों में अपने आप को खोया हुआ पाता हूँ। उन पलों को याद करके आज भी दिल खुशी से नाच उठता है। मुझे जितना सम्मान और आदर मिला था, उतना तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। सभी भाइयों से मिलने के बाद और सबसे औपचारिक मुलाकात के बाद बैठक की तैयारियों में लग गया। मुझे आज पूरी बैठक का संचालन करना था, तो मैं उसी की तैयारी में लग गया और कुछ ही देर में मैंने बैठक की रूपरेखा तैयार कर अपनी तैयारी कर ली, ताकि मैं अपनी सबसे अच्छी प्रस्तुति दे सकु।

भगवा फ़ोर्स (एक राष्ट्रभक्त दल) की प्रदेश स्तरीय बैठक में मंच संचालन के लिए पूरे राजस्थान के सभी जिलों में से मुझे जिम्मेदारी दी गयी, जो मेरे लिए बड़े गर्व की बात भी थी और मुझे एक नया मौका भी मिल रहा था कि मैं अपनी क्रिएटिविटी को धार दे सकु। यह जिम्मेदारी मुझे निवर्तमान प्रदेश संगठन महामंत्री श्री पंकज जी शर्मा (वर्तमान में जयपुर संभाग अध्यक्ष) ने दी। मैं उनका आभारी हूँ कि उन्होंने मेरी योग्यता को पहचान कर उसमें मेरे लक्ष्य को भेदने में मेरे सारथी बने, जैसे महाभारत में श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन के बने थे। आज भी उनसे बात करके ऐसे महसूस होता है जैसे मैं अपने सग्गे बड़े भाई से ही बात कर रहा हूँ। उनका प्यार आज भी वैसा ही है जैसे पहली बार में था। आज भी उनके कॉल का इंतज़ार रहता है और उनसे बात करने को उत्सुकता रहती है।

सबसे पहले भगवान श्रीराम को दीपक करके उनका स्मरण किया और फिर मैंने शीर्ष नेतृत्व से भगवा फ़ोर्स की राष्ट्रीय बैठक की अनुमति ली और बैठक का आयोजन प्रारम्भ हुआ। मैंने सबका अभिवादन किया और अपना परिचय दिया। उसके बाद सब भगवा भाइयों ने अपना परिचय दिया। परिचय के दौर के बाद शीर्ष नेतृत्व से पधारे बड़े भाइयों ने अपने विचार रखें और विभिन्न जिलों से पधारे भाइयों ने भी अपने-अपने विचार रखें। उसके बाद विभिन्न पदाधिकारियों को उनके नियुक्ति पत्र प्रदान किये गए और फिर आपस में विभिन्न मुद्दों पर आपस में चर्चा हुई। सभी भगवा भाइयों ने इस चर्चा में बढ़-चढ़कर भाग लिया। हिंदुत्व के मुद्दे पर सबकी एकजुटता देखकर बहुत अच्छा लगा। शीर्ष नेतृत्व को भी विभिन्न मुद्दो और समस्याओं से अवगत कराया गया। जिसमें उनका भी अच्छा सहयोग प्राप्त हुआ और इस तरह प्रदेश स्तरीय बैठक सम्पन्न हुई।

मैं भगवा फ़ोर्स की प्रदेश स्तरीय बैठक को सम्पन्न कर राष्ट्रीय कार्यकारिणी और सभी भगवा भाइयों से मिलकर वहां से अजमेर के लिए निकला। लेकिन वहां से कुछ विलंब के कारण मैं समय पर अजमेर नहीं पहुंच पाया। मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश भी की, पर शायद मैं बहुत ज्यादा ही लेट था। मैंने जयपुर से प्राइवेट बस पकड़ी, पर वह भी मुझे समय पर अजमेर नहीं पहुंचा पाई। मुझे अजमेर से मुम्बई के लिए निकलना था और जयपुर से अजमेर का रास्ता करीब 3 घंटे का है। अब मेरे पास सिर्फ 02:30 घंटे बचे थे। मेरी सभी कोशिशें नाकाम होती नजर आ रही थी, फिर भी मैंने अंतिम समय तक हार मानना नहीं सीखा। मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश में लग गया कि मैं समय पर अजमेर पहुंच जाऊ और वहां से ट्रैन पकड़ लु। पर शायद मेरी कोशिश आज नाकाम होने वाली थी। मैं मन ही मन भगवान से भी प्रार्थना कर रहा था, पर आज जैसे भगवान ने भी ठान ली कि इसे अपना सफर खुद ही तय करने दो। भगवान भी मेरी कौतूहलता और असमंजस की स्थिति को देखकर शायद मजे ले रहे थे और अंत में मुझे ऐसे लगा, जैसे भगवान ने मेरा हाथ बीच समुद्र में लाकर छोड़ दिया हो और कह रहे हो कि "जा...! अब आगे की कठिनाइयों से खुद ही लड़ और बाकी के समुद्र को तैरकर पार कर।" मैं आज समय के आगे हार गया। मैं रेलवे स्टेशन तो पहुंच गया, पर मेरी ट्रैन छूट चुकी थी और वह भी महज 10 मिनिट के लिए....! आज मुझे 10 मिनिट की कीमत का अंदाजा हो गया था।
यह बात मुझे बीच रास्ते में ही पता चल गई थी कि मेरी यह ट्रैन मुझे नहीं मिलेगी। इसलिए मैंने पहले ही समझदारी से काम लिया। कहते है ना कि बुरे समय में भी अपना आपा नहीं खोना चाहिए और समझदारी से काम लेना चाहिए और अगर आप सफर में हो तो स्टेपनी साथ में रखनी चाहिए। फिर भले ही वह सफर किसी गाड़ी का हो या जिंदगी का....!

एक मेरी हमेशा से ही आदत रही है कि मैं कही भी सफर में जाता हूँ तो वहां की सभी तैयारियां पहले से ही कर लेता हूँ और फिर यह तो पहला और अकेले सफर था। तो मैंने पहले ही Whare is my train नामक मोबाइल एप्प डाउनलोड कर रखा था, जिससे कि ट्रैन की लाइव लोकेशन का पता चल सके। जिसे मैंने बस में पूरे समय खोल रखा था। जिससे कि मुझे भविष्य की सटीक जानकारी बराबर हो रही थी और यही जानकारी मेरे काम को आसान बनाती गयी और इस संकट की घड़ी से मैं उबरने में सफल हो सका।

मैं जल्द ही अजमेर पहुंच गया, पर पहली ट्रैन निकल चुकी थी और अगली ट्रैन बस निकलने ही वाली थी। मैं जल्दी से टिकट कॉउंटर पर गया और इस ट्रैन का लोकल टिकट लिया और फटाफट ट्रैन की तरफ भागा। तब तक यह ट्रैन भी अपना सिग्नल दे चुकी थी, हॉर्न की आवाज सुनकर मेरी गति और बढ़ गयी, मैं भागकर ट्रैन जिस दिशा में जाने वाली थी, उसी तरफ भागा, ताकि ट्रैन छूट भी जाये तो मैं किसी भी डिब्बे में एक बार तो चढ़ जाऊ। मैं कुछ आरक्षित AC डिब्बो को छोड़कर आगे भागा, तो एक सामान्य डिब्बा दिखा। मैं समय न गंवाते हुए उसमें चढ़ गया और ऊपर की बर्थ पर जाकर सो गया। मैं जैसे ही ट्रैन में चढ़ा, ट्रैन प्लेटफॉर्म से अपने गंतव्य की ओर बढ़ गयी। अगर मैं कुछ सेकेंड चूक जाता तो यह ट्रैन भी छूट जाती और फिर वह रात मुझे अजमेर प्लेटफॉर्म पर ही गुजारनी पड़ती। जो कि मेरे लिए बहुत ज्यादा दुःखद होता।

मैंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया और जैसे ही आंख बंद की, एक ऐसे खयाल ने मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम कर दी कि मैं अचानक से उठकर बैठ गया और पूरी ट्रैन में एक नजर दौड़ाने लगा।

यह ट्रैन अजमेर बांद्रा थी, जिसमें कि चित्तौड़गढ़ से उदयपुर वाली ट्रैन के डिब्बे जुड़ते है और अजमेर वाली इस ट्रैन के (जिसमें मैं था) कुछ डिब्बे अलग होते है, जो किसी और तरफ जाते है। अब मेरे साथ स्थिति यह थी कि मैं जिस सामान्य डिब्बे में चढ़ा, वह कहा के लिए है? मुझे नहीं पता था। मैंने इसकी जानकारी के लिए कुछ साथ वाले लोगों को पूछा तो उनका भी कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला मुझे। सब कोशिश करने के बाद मेरे पास सिर्फ एक तरीका बचा था कि अगले स्टेशन पर उतर कर मैं जिस सामान्य डिब्बे में बैठा हुआ था, उस पर लगे ट्रैन के नाम के बोर्ड को पढ़कर पता लगाना और यह तरीका कामयाब भी हो गया। मैंने अगले स्टेशन पर उतकर कर यह काम कर लिया और निश्चिंत होकर अपने बर्थ पर सो गया और अपने "मेरी गुलाबी नगरी की पहली यात्रा का वृत्तांत" को लिखने में मशगूल हो गया..... और कब गुलाबी नगरी के सपनो में खो गया, पता ही नहीं चला.....????

समाप्त...!

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