हाथ से फिसलते संस्कार, रेत की तरह सने-सने...!⏳
(संस्कारों को पुनर्जीवित करने की दिशा में एक छोटा-सा कदम, जिसे दौड़ आप ही बनाएंगे...!) भाग 02.
(मर्यादा और संस्कार का ऐसा दौगला चेहरा, जिसे आज बेनकाब करने का समय है और अगर आज ऐसा नहीं हुआ, तो आने वाली पीढियां हमें कभी माफ नहीं करेगी...!)
बात शनिवार, दिनांक 23 मार्च, 2019 के दिन गुरु कुमुद आदि ठाणा के होली चातुर्मास (देवगढ़) की है। (आपको बता दु कि, गुरु कुमुद आदि ठाना का होली चातुर्मास, 2020 भी देवगढ़ ही तय है।) यह एक ऐसा सामाजिक (धार्मिक) कार्यक्रम होता है। जिसका गुरुभक्तों को बेसब्री से इंतज़ार रहता है। क्योंकि खुद गुरु कुमुद आदि ठाणा के साथ ही श्रमनसंघ आदि के साधु-साध्वियों के आगामी चातुर्मास की घोषणा खुद गुरु कुमुद के मुखारविंद से होती है। गुरुभक्तों को इन घोषणाओं का बेसब्री से इंतज़ार रहता है और यह इंतज़ार उस समय अतिउत्साह में बदल जाता है, जब सभी साधु-साध्वियों के आगामी चातुर्मास की घोषणाएं हो चुकी होती है और सिर्फ गुरु कुमुद आदि ठाणा की घोषणा रह जाती है। इस बार देवगढ़ में भी यही हुआ। एक-एक कर सभी साधु-साध्वियों के आगामी चातुर्मास की घोषणाएं हो चुकने के बाद एकाएक गुरु कुमुद कुछ देर चुप हो गए और गुरुभक्तों के सामने देखकर मुस्कुराने लगे और यह मुस्कान कुछ ही सेकंड में एक अट्ठहास बन गयी। जिसकी आवाज सभी गुरुभक्तों के कानों में वहां लगे स्पीकर द्वारा पड़ी और गुरुभक्तों का उत्साह सातवें आसमान पर चढ़ गया। सबके मन में बस एक ही सवाल था कि, "अब क्या घोषणा होगी...?" क्योंकि इस घोषणा के दायरे में सिर्फ तीन स्थान निश्चित थे, पहला... भादसोड़ा, दूसरा... खुद गुरु कुमुद की दीक्षा स्थली, कड़ियाँ और तीसरा... खमनोर (जो कि करीब 3-4 साल से इस दिन का इंतज़ार रहा था।) और इस दौड़ में अंत तक कांटें की टक्कर थी, पर अंतिम समय में खमनोर की मेहनत रंग लाई और यह बाजी खमनोर ने मार ली। गुरु कुमुद ने खमनोर के नाम की घोषणा करी और इसी के साथ गुरुदेव के जयकारे के साथ पूरा पंडाल गूंज उठा।
कुछ देर जयकारे के बाद गुरु गुणगान और प्रार्थना हुई और इस कार्यक्रम का समापन हुआ। समापन के साथ ही एक व्यवस्था गुरुभक्तों के लिए थी, जिसे हम प्रभावना कहते है। प्रभावना के रूप में देवगढ़ श्रीसंघ ने गुरु-नाम के चांदी के सिक्कों की व्यवस्था की, जो कि बहुत ही सराहनीय थी।
अब यहां से शुरू होता है... एक ऐसा खतरनाक सफर, जिसकी तरफ सबका ध्यान आकर्षित करना ही इस लेख का मुख्य उद्देश्य है। इस खतरनाक सफर की गवाह खुद देवगढ़ की पावन धरा है, जो इसे कभी नहीं भूल सकती। कुछ देर पहले उस धरा को भी अपनी किस्मत पर नाज था, पर शायद भगवान को कुछ और ही मंजूर था। इसलिए यह नाज ज्यादा देर न टिक सका और इस पावन धरा को एक ऐसा नजारा दिखा, कि यह नाज कब शर्म में बदल गया? पता ही नहीं चला। उस पावन धरा को भी शर्म आ गयी होगी, जब उसने कुछ ही देर पहले जिन्हें सभ्य और सुसंस्कृत समझा था, वह कुछ ही देर बाद असभ्य और असंस्कृत व्यवहार के साथ नजर आएं और वह भी महज उस चाँदी के सिक्के के लिए, जो नश्वर है। उसकी कोई कीमत नहीं। जिसे कोई प्रभावना के रूप में मुफ्त में बांट रहा है।
आज अगर विश्व के बाकी समुदायों या संप्रदायों से तुलनात्मक अध्ययन करें (वैसे मैं किसी की, किसी से तुलना करना सही नहीं समझता, क्योंकि गुण-अवगुण सब में होते है।) तो पूरे विश्व का सबसे सुदृढ और सुसंस्कृत जैन समाज ही है। एक समय में जैन धर्मावलंबियों की इतनी इज्जत थी, कि एकाएक उन पर कोई गलत शक नहीं करता था और उन पर हद से ज्यादा विश्वास करती थी यह दुनिया, पर आज अगर हम देखें, तो इसका पूरा का पूरा उल्टा हो गया है। आज वह इज्जत और विश्वास खो दिया है जैनियों ने और उसके सीधे जिम्मेदार हम खुद ही है।
मैंने ऐसा नजारा देवगढ़ में ही नहीं, हर उस जगह देखा है, जहा या तो सामाजिक खाना चल रहा हो या कोई प्रभावना आदि बंट रही हो या कोई कूपन या लकी ड्रॉ के टिकट बंट रहे हो। ऐसी जगह ऐसी अव्यवस्थाएं देखने को मिल ही जाती है और ऐसी अव्यवस्थाएं हमारे जैन समुदाय में बहुत बढ़ रही है। जो कही न कही हमारी असामाजिकता और संस्कारों को सबके सामने उजागर करती है। यह हमारे लिए शर्मनाक है।
जब भी मैं ऐसे नजारें देखता हूँ, तो शर्म के साथ बहुत गुस्सा भी आता है। पर किसी की संस्कारों से बनी सोच को तो कुछ ही देर में नहीं बदला जा सकता। इसलिए मन मारकर चुप हो जाता हूँ। पर इस पर लिखने से मैं अपने आप को रोक नहीं पाया। क्योंकि इस पर मैं कई सालों से लिखना चाहता था।
इस बात के आप में से भी कितने ही महानुभव गवाह होंगे कि, जब श्रीसंघ, देवगढ़ द्वारा प्रसाद स्वरूप प्रभावना की व्यवस्था को हमारे में से ही कई सम्माननीय महानुभवों ने ऐसा अव्यवस्थित कर दिया। जैसे ना ही इससे पहले कभी प्रभावना देखी हो और ना ही इससे बाद कभी प्रभावना देखने को मिलेगी।
श्रीसंघ, देवगढ़ की इतनी अच्छी व्यवस्था थी, कि हर कही ऐसा देखने को नहीं मिलता। उनकी व्यवस्था में एक तरफ जहां मुख्य प्रवेश द्वार था, वहां से श्रावकों के लिए प्रभावना लेकर निकलने की समुचित व्यवस्था थी और जिस तरफ महिलाएं बैठी थी, उसी तरफ श्राविकाओं के प्रभावना लेकर निकलने की समुचित व्यवस्था थी। जो शुरू में कुछ देर समुचित चली। पर जैसे ही दोनों तरफ भीड़ जमा हुई और कुछ अप्राकृतिक तत्वों ने मिलकर इस व्यवस्थित व्यवस्था को भंग करने का निर्णय कर लिया और वह श्राविकाएं सीधा पुरुषो वाली तरफ घूम गयी और शर्म-हया को त्यागकर, अपनी मान-मर्यादा को ताक पर रखकर पुरुषों के बीच में घुस गई और बस देखते ही देखते सुचारू व्यवस्था कब अव्यवस्था में परिवर्तित हो गयी? पता ही नहीं चला।
बस मेरे विचार यही खत्म होते है। क्योंकि जो मैंने वहां देखा, उसके बाद विचार करने के लिए कुछ बचा ही नहीं। मैंने आगे जो देखा, उसके लिए बस यह पंक्ति ही लिख पाऊंगा कि, "घर को आग लगा दी, घर के ही चिरागों ने...!" मतलब जिन महानुभवों पर समाज की व्यवस्थाओं को संभालने की जिम्मेदारी है, ज्यादातर वही महानुभव इस व्यवस्था को अव्यवस्थित करने में प्रमुख थे।
क्या आपको यह लेख पढ़ने के बाद भी थोड़ी बहुत शर्म नहीं आ रही? क्योंकि आपको खुद पता है कि, आप भी ऐसी अव्यवस्थाओ का हिस्सा रहे है और अगर आप सही में कभी ऐसी अव्यवस्थाओं का हिस्सा नहीं रहे, तो यह बहुत गर्व की बात है। पर यदि आपका दिल अंदर से गर्व महसूस नहीं कर पा रहा है, तो इसका जिम्मेदार यह समाज या इसकी व्यवस्थाएं नहीं, बल्कि आप स्वयं है और आप स्वयं है, तो आज आपको एक कसम खानी होगी कि, मैं आगे से कभी भी ऐसी अव्यवस्थाओं का हिस्सा नहीं बनूँगा और ना ही ऐसी अव्यवस्थाओं का हिस्सा बनने वालो का समर्थन करूँगा।
अगर आज आपने यह कसम खा ली, तो समझो... आगे से कभी ऐसी अव्यवस्थाओं को देखने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। (यह कसम खाना या नहीं खाना बस आपका निजी फैसला होगा, जो कि एक दिन समाजहित के लिए नींव का पत्थर साबित होगा।)
मेरे उन सभी समाजसेवकों, गुरुभक्तों और प्रतिष्ठित पदासीन व्यक्तियों से कुछ सवाल...! (जिनका जवाब मुझे नहीं दे, पर अपने अंतर्मन में समझ ले, बड़ी ही ईमानदारी के साथ। क्योंकि अंतर्मन न ही कभी झूठ बोलता है और न ही कभी गलत बोलता है।)...
मेरे उन सभी समाजसेवकों, गुरुभक्तों और प्रतिष्ठित पदासीन व्यक्तियों से कुछ सवाल...! (जिनका जवाब मुझे नहीं दे, पर अपने अंतर्मन में समझ ले, बड़ी ही ईमानदारी के साथ। क्योंकि अंतर्मन न ही कभी झूठ बोलता है और न ही कभी गलत बोलता है।)...
Q. 01. क्या ऐसी अव्यवस्था फैला कर हम अपने ही संस्कारों का प्रदर्शन नहीं कर रहे?
Q. 02. क्या यह हमारे द्वारा की जा रही गुरुदेव की भक्ति का अपमान नहीं है?
Q. 03. क्या हम उस जंगली जानवर से भी गए-गुजरे है, जो अपने लिए प्रकृति द्वारा बनी व्यवस्था कभी नहीं बिगाड़ता?
Q. 04. क्या हम इतने असामाजिक हो चुके है कि, हमें अपने सिवाय कोई दिखता ही नहीं?
Q. 05. क्या हमारे से अच्छा वह आदि-मानव नहीं था, जो सबसे पहले अपने कबिले के बारे में सोचता था?
वर्तमान का सबसे बड़ा सवाल...
कही हम व्यवस्था की आड़ में दिन-प्रतिदिन अव्यवस्थित गतिविधियों से तो नहीं जुड़ रहे या अव्यवस्थित तो नहीं बन रहे? क्योंकि किसी भी काम में फुर्ती अच्छी बात है, समय का बचाव करना अच्छी बात है। पर कही इन सबकी आड़ में हम अपने ही समाज में अव्यवस्था तो नहीं फैला रहे? जाने-अनजाने कही अपने ही धर्म की इज्जत अपने हाथों या अपनी ही सभ्यता को नष्ट तो नहीं कर रहे?
अंत में मेरी आप सभी प्रभुद्धजनों से हाथ जोड़कर यही विनती है कि, हम इस सभ्य और सुसंस्कृत सभ्यता को विलुप्त होने से बचाने के लिए प्रयत्नशील हो। हम हमारी आने वाली पीढ़ी को ऐसे संस्कारों से सुसज्जित करें कि, इस सभ्यता और संस्कृति को बढ़ाकर दुनियां को एक संदेश दिया जा सके और वह संदेश होगा...
समता का...! संयम का...!! मोक्ष का...!!!
धन्यवाद! जय जिनेन्द्र...!🙏
(अगर आप इस लेख को पढ़ने के बाद मुझ पर गुस्सा है, तो इसमें आपकी थोड़ी भी गलती नहीं है। क्योंकि या तो आपने कभी इस पर ध्यान ही नहीं दिया या फिर आप भी कही न कही ऐसी अव्यवस्थाओं के लिए जिम्मेदार है। इसलिए आपका गुस्सा होना स्वाभाविक ही है और अगर आपको लगता है कि यह एक सटीक सच्चाई है और ऐसी अव्यवस्था का जैन समाज में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, तो मेरा आपसे निवेदन है कि आप इसे अपने हर समूह और संपर्क नंबर को शेयर करें और इसका लिंक अपने स्टेटस पर जरूर लगाएं। ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग जागरूक हो सके। साथ ही आप अपने स्तर पर हर जगह ऐसी अव्यवस्थाओं का विरोध करें। ताकि समाज से इन्हें बाहर का रास्ता दिखाने में मदद मिल सकें।)
(मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरा यह एक छोटा-सा लेख एक न एक दिन आपकी सोच भी बदलेगा, आपकी आँखें भी खोलेगा और समाज में बहुत बड़ा बदलाव भी लाएगा। क्योंकि जो बदलाव करना है, हमें ही करना है। क्योंकि समाज भी हमसे ही है, आप और हम ही समाज है। इसलिए इसमें सुधार की जिम्मेदारी भी हमारी ही है...! बाकी मैं तो समाजहित और समाजसुधार के लिए मेरी कलम को धार देता रहूंगा...! अविरल...! अनवरत...!! क्योंकि यह मेरा कर्त्तव्य भी है और अधिकार भी...!)