Saturday 14 January 2023

क्या हम यह दान (धर्म) कर रहे है या दान-पुण्य की आड़ में आडंबर/दिखावा (अधर्म)...?

अरे जैन भाइयों, हम यह कौनसा धर्म कर रहे है? ऐसा दान करना हमने कहा से सीखा? हम दान के नाम पर कोरा दिखावा कर धर्म की झूठी बातें करना कहा से सीख गए? क्या यही जैन धर्म की परिभाषा है?

और अगर यही जैन धर्म की परिभाषा है, तो ऐसे धर्म को धर्म न कहकर अधर्म कह दे, तो ज्यादा सटीक होगा। ऐसे अधर्म को तो आग लगा देनी चाहिए और समय-समय पर प्रकृति ने ऐसे अधर्म में आग लगाकर इसका नाश भी किया है। जो हम सभी जानते है।

एक कड़वी हकीकत तो यह है कि, हम दान पुण्य करने नहीं, बल्कि फ़ोटो खिंचवाने जाते है। क्योंकि वो फ़ोटो हमें अपने व्हाट्सएप्प स्टेटस पर डालकर लोगों में यह बताना होता है कि, हम कितने बड़े दानी, समाजसेवक और धर्मनिष्ठ श्रावक है? यह एक स्टेटस सिम्बल बनता जा रहा है। जो युवाओं को अधर्म की और खींचता चला जा रहा है।

अरे, हम अपने स्वधर्मी कमजोर भाई को तो संभाल नहीं पा रहे। हम हमारे ही समाज के कमजोर तबके को साथ लेकर चल नहीं पा रहे और स्टेटस डालते है, दान-पुण्य करते हुए। ऐसे दान-पुण्य का क्या लाभ? जब आपका अपना स्वधर्मी भाई तो भूखा मर रहा और हम दान उन्हें दे रहे, जो हमें या हम उन्हें जानते तक नहीं।

अब कई भ्रष्ट नेता मानवता की दुहाई देंगे...!
उन्हें कभी पूछो कि, तुम्हारी कमाई कितने लोगों के खून चूसने के बाद हो रही है? दान का मतलब होता क्या है? दान देने के धार्मिक सिद्धांत या नियम क्या है? ऐसे समाज को दीमक की तरह खोंखला करने वाले ये दिग्भ्रमित नेता कभी इन सवालों के जवाब नहीं दे पाएंगे। बल्कि वे अपना लॉजिक लगाकर अपनी बात सही साबित करते नजर आएंगे। मतलब वे सही और जिनवाणी गलत...! कभी-कभी तो मुझे आश्चर्य होता है।

दान की धर्मानुसार परिभाषा:
भारत का दान-पुण्य में भी एक बहुत बड़ा और स्वर्णिम इतिहास रहा है। दानवीर कर्ण और दानवीर भामाशाह जैसे महापुरुषों ने इस भारतभूमि को गौरवांवित किया है। जब ये वीर दान देते थे, तो इनकी आंखें झुकी हुई, इनके एक हाथ से दान दिया जाता था, तो दूसरे हाथ को भनक तक नहीं होती थी। इनका सीना दान देते समय कभी चौड़ा नहीं होता था, इनको कभी घमंड नहीं होता था। इनको आडंबर के साथ दान देते हुए कभी किसी ने नहीं देखा। इसलिए वे इतिहास रच गए, अमर दानवीर हो गए।

हम जो धर्म के नाम पर अधर्म कर रहे है न। इसका परिणाम बहुत बुरा होने वाला है। इसका परिणाम जब सामने होगा न, तो धर्म से आने वाली पीढ़ियों का विश्वास उठ जाएगा और धर्म का नाश हो जाएगा। फिर यह मत कहना कि, प्रकृति यह क्या कर रही है? जमाना बदल गया। दुनिया विश्वास करने लायक नहीं रही। यह तो पांचवे आरे का असर है।

क्योंकि हमें आज जो मिल रहा है, वह पुराने कर्मों का फल है और जो भविष्य में मिलेगा, वह वर्तमान कर्मों का फल होगा। यह बात गांठ बांध लेना।

(भारत भर में एक दिन के कई ढोंगी दानवीर आपको 14 और 15 जनवरी को दिख जाएंगे। कई कार्यक्रम देखने को मिल जाएंगे, जिसमें ये ढोंगी नाचते हुए मिलेंगे।)

अब मैं थोड़ा दूसरे मुद्दे पर आता हूँ। *हम मकर संक्रांति पर ही दान-पुण्य क्यों करते है? मकर संक्रांति के 02 दिन पहले या 04 दिन बाद में क्यों नहीं करते?*

क्योंकि मकर संक्रांति के दिन दिया गया दान या किया गया पुण्य सौ गुना से भी ज्यादा फल देता है। मतलब हम कम मेहनत में अधिक फल चाहते है और इसे चाहना गलत भी नहीं है। जब हमें धर्म ने ही ऐसी व्यवस्था दी है, तो इसका लाभ जरूर लेना चाहिए और हम ले भी रहे है। जो बहुत अच्छी बात है।

अब सवाल फिर वही, हम पुण्य के नाम पर पाप तो नहीं कर रहे?

बिल्कुल पाप ही तो कर रहे है। क्योंकि मल मास के एक महीने के दौरान तो हमने कोई दान-पुण्य नहीं किया। क्योंकि मल मास में ऐसा कुछ नहीं किया जाता। फिर हम मल मास के अंतिम दिवस ऐसा क्यों कर रहे है? जबकि अब मकर संक्रांति 14 जनवरी की जगह 15 जनवरी हो गयी है। मतलब हम जो 14 जनवरी को दान-पुण्य कर रहे है, वह मल मास में ही कर रहे है। तो वह पुण्य अर्जन की बजाय पाप अर्जन हुआ न।

क्या इतनी छोटी-छोटी बातें भी हमारे दिमाग में नहीं बैठ रही? क्यों? क्योंकि हमारा दिमाग धर्म का त्याग कर राजनीति और भ्रष्ट तंत्र का आदी हो चुका है। हम सत्य से मुँह क्यों छिपाते फिर रहे है?

हमें सत्य जानने का पूरा अधिकार है, पर साथ ही उस पर चलने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है। सिर्फ सत्य की बातें कर लेने मात्र से दुनिया बदल नहीं जाएगी। सही में बदलाव आपके व्यवहार से ही सम्भव है।

अब मेरे कुछ सवाल, जो बहुत छोटे है, लेकिन बड़े तीखें और सोचनीय है। जिनके जवाब यदि आपने सोच लिए, तो आप बहुत बड़े पाप से बच जाएंगे...

01) क्या आप सच में यह सभी दान-पुण्य पुण्य अर्जन के लिए कर रहे है या सिर्फ किसी के कहने पर जबरदस्ती भीड़ का हिस्सा बनते जा रहे हो?

02) क्या आपके गुरु या गुणीजन हमें इन छोटे-छोटे ज्ञान से हमारी जिज्ञासा शांत करते है या वे भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इनमें मददगार है?

03) क्या हमें समाज में कुकुरमुत्ते की तरह भरमार से उग आए समाजसेवक नेता ऐसे दिखावें के दान-पुण्य के लिए उकसाते हुए दिखाई देते है?

04) क्या हमें इसका फ़ोटो खींचने के अलावा कोई फायदा आज तक मिला है या ये समाज में कुकुरमुत्ते की तरह भरमार से उग आए समाजसेवक नेता बड़े बनते जा रहे है?

05) क्या धर्म के नाम पर ये समाज में कुकुरमुत्ते की तरह भरमार से उग आए समाजसेवक नेता समाज के हम जैसे छोटे श्रावक-श्राविकाओं को पद-प्रतिष्ठा और मान-सम्मान पाने के लिए सीढ़ीयों की तरह इस्तेमाल तो नहीं कर रहे?

मुझे एक सनातनी संत ने एक बार एक बहुत छोटी, लेकिन बड़ी सारगर्भित बात बोली थी कि, "प्रवीण, इंसान दो रोटी खाता है न, तो दो रोटी जितनी अक्ल तो होनी ही चाहिए।" (मतलब आप प्रकृति की सबसे अनमोल कृति और बुद्धिमान है, तो किसी के बहकावे में क्यों आते है? अपनी बुद्धि से सही-गलत या पाप-पुण्य का सोच-विचार नहीं कर सकते क्या?)

(किसी को मेरी बात अखरे या सही नहीं लगे, तो सत्य की खोज करें और मेरे विचारों के अलावा कोई सत्य मिल जाएं, तो मुझे भी अवगत करवाएं। ताकि मेरा ज्ञान भी उच्च से उच्चतम शिखर की ओर बढ़ सके।)

जय जिनेन्द्र...!