Thursday 29 November 2018

मेवाड़ युवा शक्ति फ़ाउंडेशन की टीम को फाइनल जितने पर बधाई.

आज तक के राजस्थान के मुम्बई में कार्यरत प्रवासी जैन समाज के सबसे बड़े क्रिकेट टूर्नामेंट (All India Jain Premier Leauge) (पुलिस ग्राउंड, मरीन लाइन्स) में मेवाड़ युवा शक्ति फ़ाउंडेशन के कोषाध्यक्ष महावीर जी मादरेचा के नेतृत्व में मेवाड़ युवा शक्ति फ़ाउंडेशन की टीम को फाइनल जितने पर बधाई और भविष्य के लिए ढ़ेरों शुभकामनाएं...!

यह नेतृत्वकर्ता और टीम के सभी सदस्यों की कड़ी मेहनत और लगन का ही परिणाम है कि आज पूरे मुम्बई में इनका ढंका बज रहा है। आज जब ऐसे मौके आते है तो सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है कि आज अपने समाज के युवा हर क्षेत्र में अपना ढंका बजा रहे है और अपने समाज, गाँव और माता-पिता का नाम रोशन कर रहे है।

ऐसे युवाओं के मंगलमय जीवन की प्रार्थना के साथ....!
जय जिनेन्द्र🙏

Monday 26 November 2018

क्योंकि मैं कमल हूँ.....!🌷

भारत माँ का मान हूँ,
राष्ट्र का अभिमान हूँ,
देशभक्तों की शान हूँ,
गद्दारों के लिए अपमान हूँ।

क्योंकि मैं कमल हूँ...!🌷

अटल का ताज हूँ,
मोदी की आवाज हूँ,
बीजेपी का साज हूँ,
विरोधियों के लिए बाज हूँ।

क्योंकि मैं कमल हूँ...!🌷

गृहिणियों का गैस हूँ,
नारी शक्ति का भेष हूँ,
सेना का तेष हूँ,
टेक्नोलॉजी का Wireless हूँ।

क्योंकि मैं कमल हूँ...!🌷

किसान का हल हूँ,
युवाओं का बल हूँ,
सैलानी का थल हूँ,
आधुनिकता का पल हूँ।

क्योंकि मैं कमल हूँ...!🌷

Wednesday 21 November 2018

गुलाबी नगरी की मेरी पहली यात्रा की कुछ स्मृतियाँ भाग 09.

आज भाग 09 में आप पढ़ेंगे...! मेरी जयपुर यात्रा का मुख्य उद्देश्य और यात्रा का दुःखद अंत.

बस ने एकदम से ब्रेक लगाया और मैं जैसे झटके से नींद में से उठा, तो देखा कि मैं रेलवे स्टेशन पहुंच चुका था। मैं बस से उतरकर अपनी होटल की तरफ बढ़ गया। कुछ ही देर पैदल चलने के बाद मैं होटल पहुंचा और फिर होटल से निकलने की तैयारी करने लगा। मैंने अपने कपड़े और बाकी अस्त-व्यस्त पड़े सामान को व्यवस्थित किया और अपना बैग जमाया और होटल के रिसेप्शन में फ़ोन कर जानकारी दी कि 'मैं अब होटल छोड़ना चाहता हूँ।' जानकारी देने के बाद मैं कमरे से रिसेप्शन के लिए निकल पड़ा। मेरा कमरा 4थें माले पर था, तो मैं लिफ्ट के सहारे नीचे आया और रिसेप्शन काउंटर पर जाकर कमरे की चाबी उन्हें सौंप दी। मैंने अपना बिल मांगा और हिसाब निपटाया। पर अभी तक मेरा सुबह का नाश्ता बाकी था, जो मेरी बुकिंग के साथ मुझे फ्री मिला था। मैंने उसकी मांग की, तो उन्होंने मुझे 2-3 ऑप्शन दिए। मैंने अपने लिए आलू का पराठा पसंद किया, जो उन्होंने कुछ ही देर में मेरे काउंटर पर भेज दिया। मैं अपने सुबह के नाश्ते में अपना पसंदीदा आलू का पराठा खाकर वहां की कुछ खट्टी-मीठी यादों के साथ अपने आगे के मिशन के लिए निकल पड़ा, जो कि मेरा मुख्य मिशन था।
मैं वहां से निकल कर कुछ दूरी तक पैदल ही चला और फिर मुख्य सड़क पर आ गया, जहा से मुझे आगे अपने मिशन को पूरा करने जाने में सुविधा हो।

मैंने वहां खड़े-खड़े अपने मोबाइल में उबर का एप्प डाउनलोड किया और एक उबर मोटरसाइकिल की बुकिंग की, जो कि करीब 10 मिनिट बाद ही मेरे सामने थी। यह उबर मोटरसाइकिल का मेरा पहला सफर था, तो मैं थोड़ा उत्साहित था। मैंने उबर मोटरसाइकिल के ड्राइवर का स्वागत किया और उसने भी मेरा अभिनंदन किया और मुझे एक भगवा हेलमेट पहनने को दिया। उबर ड्राइवर ने भी ऐसा ही एक काला हेलमेट पहन रखा था।
करीब आधा घंटा सफर के बाद मैं मेरे मुख्य उद्देश्य की पूर्ती हेतु निश्चित स्थान पर पहुंच गया। जहा मुझे कई भगवा भाइयों से मिलने का मौका मिला। जिसमें राष्ट्रीय कार्यकारिणी से भी गणमान्य उपस्थित थे, जिन्होंने मेरा बहुत सम्मान के साथ गले लगाकर स्वागत किया। उनसे गले लगना और इतना प्यार पाना वाकई बड़े गर्व की बात थी। बहुत ही खुशी के एहसास वाले उन पलों को भुलाना शायद मेरे बस की बात नहीं है। आज भी उन पलों को याद करता हूँ तो बस उन्ही सपनों में अपने आप को खोया हुआ पाता हूँ। उन पलों को याद करके आज भी दिल खुशी से नाच उठता है। मुझे जितना सम्मान और आदर मिला था, उतना तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। सभी भाइयों से मिलने के बाद और सबसे औपचारिक मुलाकात के बाद बैठक की तैयारियों में लग गया। मुझे आज पूरी बैठक का संचालन करना था, तो मैं उसी की तैयारी में लग गया और कुछ ही देर में मैंने बैठक की रूपरेखा तैयार कर अपनी तैयारी कर ली, ताकि मैं अपनी सबसे अच्छी प्रस्तुति दे सकु।

भगवा फ़ोर्स (एक राष्ट्रभक्त दल) की प्रदेश स्तरीय बैठक में मंच संचालन के लिए पूरे राजस्थान के सभी जिलों में से मुझे जिम्मेदारी दी गयी, जो मेरे लिए बड़े गर्व की बात भी थी और मुझे एक नया मौका भी मिल रहा था कि मैं अपनी क्रिएटिविटी को धार दे सकु। यह जिम्मेदारी मुझे निवर्तमान प्रदेश संगठन महामंत्री श्री पंकज जी शर्मा (वर्तमान में जयपुर संभाग अध्यक्ष) ने दी। मैं उनका आभारी हूँ कि उन्होंने मेरी योग्यता को पहचान कर उसमें मेरे लक्ष्य को भेदने में मेरे सारथी बने, जैसे महाभारत में श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन के बने थे। आज भी उनसे बात करके ऐसे महसूस होता है जैसे मैं अपने सग्गे बड़े भाई से ही बात कर रहा हूँ। उनका प्यार आज भी वैसा ही है जैसे पहली बार में था। आज भी उनके कॉल का इंतज़ार रहता है और उनसे बात करने को उत्सुकता रहती है।

सबसे पहले भगवान श्रीराम को दीपक करके उनका स्मरण किया और फिर मैंने शीर्ष नेतृत्व से भगवा फ़ोर्स की राष्ट्रीय बैठक की अनुमति ली और बैठक का आयोजन प्रारम्भ हुआ। मैंने सबका अभिवादन किया और अपना परिचय दिया। उसके बाद सब भगवा भाइयों ने अपना परिचय दिया। परिचय के दौर के बाद शीर्ष नेतृत्व से पधारे बड़े भाइयों ने अपने विचार रखें और विभिन्न जिलों से पधारे भाइयों ने भी अपने-अपने विचार रखें। उसके बाद विभिन्न पदाधिकारियों को उनके नियुक्ति पत्र प्रदान किये गए और फिर आपस में विभिन्न मुद्दों पर आपस में चर्चा हुई। सभी भगवा भाइयों ने इस चर्चा में बढ़-चढ़कर भाग लिया। हिंदुत्व के मुद्दे पर सबकी एकजुटता देखकर बहुत अच्छा लगा। शीर्ष नेतृत्व को भी विभिन्न मुद्दो और समस्याओं से अवगत कराया गया। जिसमें उनका भी अच्छा सहयोग प्राप्त हुआ और इस तरह प्रदेश स्तरीय बैठक सम्पन्न हुई।

मैं भगवा फ़ोर्स की प्रदेश स्तरीय बैठक को सम्पन्न कर राष्ट्रीय कार्यकारिणी और सभी भगवा भाइयों से मिलकर वहां से अजमेर के लिए निकला। लेकिन वहां से कुछ विलंब के कारण मैं समय पर अजमेर नहीं पहुंच पाया। मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश भी की, पर शायद मैं बहुत ज्यादा ही लेट था। मैंने जयपुर से प्राइवेट बस पकड़ी, पर वह भी मुझे समय पर अजमेर नहीं पहुंचा पाई। मुझे अजमेर से मुम्बई के लिए निकलना था और जयपुर से अजमेर का रास्ता करीब 3 घंटे का है। अब मेरे पास सिर्फ 02:30 घंटे बचे थे। मेरी सभी कोशिशें नाकाम होती नजर आ रही थी, फिर भी मैंने अंतिम समय तक हार मानना नहीं सीखा। मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश में लग गया कि मैं समय पर अजमेर पहुंच जाऊ और वहां से ट्रैन पकड़ लु। पर शायद मेरी कोशिश आज नाकाम होने वाली थी। मैं मन ही मन भगवान से भी प्रार्थना कर रहा था, पर आज जैसे भगवान ने भी ठान ली कि इसे अपना सफर खुद ही तय करने दो। भगवान भी मेरी कौतूहलता और असमंजस की स्थिति को देखकर शायद मजे ले रहे थे और अंत में मुझे ऐसे लगा, जैसे भगवान ने मेरा हाथ बीच समुद्र में लाकर छोड़ दिया हो और कह रहे हो कि "जा...! अब आगे की कठिनाइयों से खुद ही लड़ और बाकी के समुद्र को तैरकर पार कर।" मैं आज समय के आगे हार गया। मैं रेलवे स्टेशन तो पहुंच गया, पर मेरी ट्रैन छूट चुकी थी और वह भी महज 10 मिनिट के लिए....! आज मुझे 10 मिनिट की कीमत का अंदाजा हो गया था।
यह बात मुझे बीच रास्ते में ही पता चल गई थी कि मेरी यह ट्रैन मुझे नहीं मिलेगी। इसलिए मैंने पहले ही समझदारी से काम लिया। कहते है ना कि बुरे समय में भी अपना आपा नहीं खोना चाहिए और समझदारी से काम लेना चाहिए और अगर आप सफर में हो तो स्टेपनी साथ में रखनी चाहिए। फिर भले ही वह सफर किसी गाड़ी का हो या जिंदगी का....!

एक मेरी हमेशा से ही आदत रही है कि मैं कही भी सफर में जाता हूँ तो वहां की सभी तैयारियां पहले से ही कर लेता हूँ और फिर यह तो पहला और अकेले सफर था। तो मैंने पहले ही Whare is my train नामक मोबाइल एप्प डाउनलोड कर रखा था, जिससे कि ट्रैन की लाइव लोकेशन का पता चल सके। जिसे मैंने बस में पूरे समय खोल रखा था। जिससे कि मुझे भविष्य की सटीक जानकारी बराबर हो रही थी और यही जानकारी मेरे काम को आसान बनाती गयी और इस संकट की घड़ी से मैं उबरने में सफल हो सका।

मैं जल्द ही अजमेर पहुंच गया, पर पहली ट्रैन निकल चुकी थी और अगली ट्रैन बस निकलने ही वाली थी। मैं जल्दी से टिकट कॉउंटर पर गया और इस ट्रैन का लोकल टिकट लिया और फटाफट ट्रैन की तरफ भागा। तब तक यह ट्रैन भी अपना सिग्नल दे चुकी थी, हॉर्न की आवाज सुनकर मेरी गति और बढ़ गयी, मैं भागकर ट्रैन जिस दिशा में जाने वाली थी, उसी तरफ भागा, ताकि ट्रैन छूट भी जाये तो मैं किसी भी डिब्बे में एक बार तो चढ़ जाऊ। मैं कुछ आरक्षित AC डिब्बो को छोड़कर आगे भागा, तो एक सामान्य डिब्बा दिखा। मैं समय न गंवाते हुए उसमें चढ़ गया और ऊपर की बर्थ पर जाकर सो गया। मैं जैसे ही ट्रैन में चढ़ा, ट्रैन प्लेटफॉर्म से अपने गंतव्य की ओर बढ़ गयी। अगर मैं कुछ सेकेंड चूक जाता तो यह ट्रैन भी छूट जाती और फिर वह रात मुझे अजमेर प्लेटफॉर्म पर ही गुजारनी पड़ती। जो कि मेरे लिए बहुत ज्यादा दुःखद होता।

मैंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया और जैसे ही आंख बंद की, एक ऐसे खयाल ने मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम कर दी कि मैं अचानक से उठकर बैठ गया और पूरी ट्रैन में एक नजर दौड़ाने लगा।

यह ट्रैन अजमेर बांद्रा थी, जिसमें कि चित्तौड़गढ़ से उदयपुर वाली ट्रैन के डिब्बे जुड़ते है और अजमेर वाली इस ट्रैन के (जिसमें मैं था) कुछ डिब्बे अलग होते है, जो किसी और तरफ जाते है। अब मेरे साथ स्थिति यह थी कि मैं जिस सामान्य डिब्बे में चढ़ा, वह कहा के लिए है? मुझे नहीं पता था। मैंने इसकी जानकारी के लिए कुछ साथ वाले लोगों को पूछा तो उनका भी कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला मुझे। सब कोशिश करने के बाद मेरे पास सिर्फ एक तरीका बचा था कि अगले स्टेशन पर उतर कर मैं जिस सामान्य डिब्बे में बैठा हुआ था, उस पर लगे ट्रैन के नाम के बोर्ड को पढ़कर पता लगाना और यह तरीका कामयाब भी हो गया। मैंने अगले स्टेशन पर उतकर कर यह काम कर लिया और निश्चिंत होकर अपने बर्थ पर सो गया और अपने "मेरी गुलाबी नगरी की पहली यात्रा का वृत्तांत" को लिखने में मशगूल हो गया..... और कब गुलाबी नगरी के सपनो में खो गया, पता ही नहीं चला.....????

समाप्त...!

Saturday 17 November 2018

गुलाबी नगरी की मेरी पहली यात्रा की कुछ स्मृतियाँ भाग 08.

आज भाग 08 में आप पढ़ेंगे...! मेरी जयपुर यात्रा की कुछ यादगार झलकियां.

मुख्य मंदिर के पीछे एक बहुत बड़ा सरोवर जैसा बना हुआ है, जिसके इर्द-गिर्द बहुत ही अच्छा बगीचा भी है और वही पर पक्षियों के लिए दाना-पानी की बहुत ही शानदार व्यवस्था भी है। मुख्य मंदिर के दर्शन के पश्चात मुख्य मंदिर से बाहर आकर पीछे सरोवर नुमा जगह और बगीचे को देखने का मन हुआ तो मैं उसी तरफ चल पड़ा। वहां जाने के लिए अलग से रास्ता बना हुआ है। मैं जब इस रास्ते से पीछे की तरफ गया तो वहां एक दरवाजा बना हुआ था, जिसके अंदर प्रवेश से पहले सुरक्षा यंत्र लगा था, जो सुरक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण था। उस सुरक्षा यंत्र से गुजरने के बाद मैंने जब सरोवर नुमा बनी उस जगह में प्रवेश किया तो मेरे सामने बहुत ही शानदार नजारा था, उस सरोवर नुमा जगह में कई फव्वारे भी लगे थे, हांलाकि उसमें पानी नहीं भरा था, एकदम सूखा था। इसलिए फव्वारों का आनंद नहीं ले पाया, पर फिर भी बहुत ही शानदार नजारा था। मैं कुछ मिनिट वहां रूका और उस नजारे का आनंद लेने लगा। वहां शौचालय, स्नानघर आदि की भी बहुत ही शानदार व्यवस्था थी।
मैं ऐसे ही उस शानदार नजारे का आनंद लेने लगा कि तभी मेरी नजर वहां से दिख रहे एक छोटे से पहाड़ पर पड़ी। उस पहाड़ पर एक बहुत ही शानदार किला बना हुआ था, जो इतनी दूर से भी बहुत शानदार दिख रहा था। उस किले के बारे में जब मैंने वहां एक सुरक्षाकर्मी को पूछा तो उन्होंने मुझे उसका नाम "नाहर का किला" बताया। जिसका इतिहास भी बड़ा दिलचष्प है। वह किला दूर से तो एक ही दिखता है, पर वह 9 भागों में बना हुआ है, मतलब बाहर से तो वह एक ही है, पर अंदर से उसके 9 अलग-अलग भाग है। जो वहां के राजा नाहर सिंह जी ने अपनी 9 अलग-अलग रानियों के लिए बनवाएं थे। इसीलिए इसका नाम "नाहर का किला" पड़ा।
गोविंद देव जी का मंदिर के बारे में ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर में स्थापित श्रीकृष्ण जी की वास्तविक मूर्ति श्रीकृष्ण जी के प्रपौत्र वज्रनाभ ने लगभग 5000 साल पहले बनाई थी। जिसमें उनको अपनी दादी के कहे अनुसार लगभग तीन बार कोशिश करने के बाद सफलता मिली। इस मूर्ति निर्माण के समय वज्रनाभ की उम्र मात्र 13 साल थी।

गोविंद देव जी का मंदिर के पास एक तालकटोरा नामक स्थान है, जो कभी पानी से लबालब रहता था, पर अब यहां ऐसा नहीं होता। इसलिए कुछ समय पहले यहां एक विशाल सभा भवन बनाया गया, जिसमें कोई खंभा नहीं है। दुनिया के सबसे बड़े खंभ-विहीन सभा भवन के रूप में इसे गिनीज बुक में स्थान दिया गया है। इस भवन की लंबाई 119 फीट है। जो अपने आप में एक आश्चर्य भी है।
मैं गोविंद देव जी का मंदिर के सुबह सुबह दर्शन कर अपने आप को बड़ा ही आनंदित महसूस कर रहा था और वहां से आनन्द के साथ विदा लेकर फिर वही गुलाबी नगरी के विभिन्न बाजारों में से होता हुआ अपनी होटल की तरफ जाने के लिए बस में बैठ गया और गुलाबी नगरी के सफर का आनंद लेते हुए कुछ रंगीन सपनो में खो गया और न जाने बस कब मेरे गंतव्य तक पहुंच गयी? पता ही नहीं चला।

क्रमशः...

(आगे... मेरी जयपुर यात्रा का मुख्य उद्देश्य और यात्रा का दुःखद अंत)
पढ़ते रहिए, गुलाबी नगरी की......... भाग 09.

Wednesday 14 November 2018

गुलाबी नगरी की मेरी पहली यात्रा की कुछ स्मृतियाँ भाग 07.

आज भाग 07 में आप पढ़ेंगे...! गोविंद देव जी का मंदिर की भव्यता और इससे जुड़े इतिहास का वर्णन.

गोविंद देव जी का मंदिर के मुख्य दरवाजे से प्रवेश करते ही बहुत सुखद और भक्तिमय वातावरण का सामना होता है। जहां हर तरफ भगवा झंडिया लगी हुई थी। मुख्य मंदिर की तरफ जाने के लिए विभिन्न पंक्तियां बनी हुई थी, जो कि एक विशाल मैदान जैसे भाग पर स्थित थी, उसी मैदाननुमा भाग पर कई धार्मिक वृक्ष भी लगे हुए थे, जिनकी श्रद्धालु पूजा-अर्चना कर रहे थे और कई उनको नमन कर आगे बढ़ रहे थे। मैं भी पीपल के पेड़ को नमन कर आगे बढ़ गया।
थोड़ा आगे बढ़ते ही मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुंच कर सीढ़ी पर नमन कर जैसे ही अंदर प्रवेश किया, एक बहुत बड़ी श्रद्धालुओं की भीड़ में मैं अपने आप को ही खोजने लग गया। मतलब वहां इतनी भीड़ थी कि अगर साथ वाले किसी साथी या बच्चें का हाथ छूट जाए तो मिलना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। उस भीड़ में श्रद्धालु अपने दोनों हाथ ऊपर कर कृष्ण भगवान का गान कर रहे थे, जो कि वहां के माहौल को एक भक्तिमय रंग से रंगीन कर रहा था। मैं भी उस भीड़ में घुस गया और गोविंद देव जी के दर्शनार्थ भीड़ से संघर्ष करने लग गया। मेरे एक हाथ में मोबाइल और दूसरे हाथ में प्रसाद और चढ़ावा होने की वजह से थोड़ी परेशानी महसूस हुई, पर यह परेशानी ज्यादा देर नहीं टिक पाई। क्योंकि मुझे तो गोविंद देव जी के दर्शन करने थे और बिना संघर्ष या तपस्या के तो भगवान मिलते नहीं। अंततः मैं मंदिर में विराजित गोविंद देव जी और राधा जी की मूर्ति के बाहर लगी रेलिंग तक पहुंच गया और उनकी अलौकिक प्रतिमा के दर्शन कर अपने आप को बड़ा ही प्रफुल्लित महसूस करने लगा। वहां की सबसे अच्छी बात यह थी कि मोबाइल पर प्रतिबंध नहीं होने से हम फोटोशूट कर सकते है और वहां की यादों को संजो कर रख सकते है। जो कि मैंने बहुत अच्छे से किया। वैसे भी मुझे फोटोग्राफी का बहुत शौक है और वहां प्रतिबंध नहीं होना मेरे लिए दौहरी खुशी का कारण बन गया, जो कि मेरे लिए एक रोमांचक अहसास भी था।
मैं मुख्य मंदिर में विराजित गोविंद देव जी के दर्शनार्थ वहां लगी पंक्ति में जुड़ गया और इंतज़ार करने लगा। थोड़ी देर में मेरा इंतज़ार पूर्ण हुआ और मैं मुख्य मंदिर में विराजित गोविंद देव जी और राधा जी की मनोहारी छटा बिखेरती और असली प्रतीत होती मूर्ति के सामने पहुंच गया और नमन कर प्रसाद पास ही रखी एक टोकरी में रखा। वहां पर प्रसाद नहीं चढ़ाया जाता। यह जानकारी मुझे अंदर जाने के बाद वहां की व्यवस्था संभाल रहे एक सुरक्षा कर्मी द्वारा पता चली। कोई भक्त जानकारी के अभाव में प्रसाद ले आता है तो वहां एक टोकरी रखी है, उसमें वह प्रसाद रख दिया जाता है। उस टोकरी के पास एक पंडित जी बैठे रहते है। मैंने भी वह प्रसाद उस टोकरी में रखकर प्रणाम कर आगे बढ़ गया। पर उन पंडित जी ने आवाज देकर मुझे बुलाया और अत्तर तो उन्होंने वही रख लिया और मिश्री की थैली में कुछ तुलसी पत्र डालकर मुझे वह थैली दे दी। इसके बाद मैं मंदिर की परिक्रमा करने लगा तो मंदिर के पीछे जाने पर वहां का नजारा देखकर मन खुश हो गया। बहुत ही सुंदर नजारा था वह।
क्रमशः...

(आगे... मेरी जयपुर यात्रा की कुछ यादगार झलकियां)
पढ़ते रहिए, गुलाबी नगरी की......... भाग 08.

Tuesday 13 November 2018

एक ऐसा भव्य काफिला, जो अपने सौभाग्य को लेने चला..! भाग 04.

आज भाग 04. में आप पढ़ेंगे...! भीलवाड़ा से प्रस्थान के बाद नाथद्वारा में गुरु-मिलन और ममतामयी नारी शक्ति के दर्शन.

"अब तो आ गयी सुहागन मंगल घड़ियां।
2019 का चातुर्मास हो कड़ियाँ में बढियां।।"

गुरु के अमूल्य हीरे गुरु से मिश्रित आंसू के साथ विदा होकर अपनी अपनी बसों में बैठने लगे। कुछ गुरुभक्त अपने निजी वाहन से आये थे, वह अपने निजी वाहन से विदा हो रहे थे। गुरुभक्तों का यु कुछ देर में चले जाना शायद भीलवाड़ा की चहल-पहल पर मानो ग्रहण सा लग रहा था। जहां कुछ समय पूर्व शांति भवन में धमाल थी, रोनक थी, गगनचुम्बी आवाजें थी, वही अब ऐसा लग रहा था, मानो इस चहल-पहल पर किसी की बुरी नजर-सी लग गयी हो। चारो तरफ सन्नाटा था, शांति भवन भी मुँह लटकाए एक तरफ खड़ा-सा प्रतीत हो रहा था। शांति भवन को भी आज यह एहसास हो गया था कि समय बदलते समय नहीं लगता और गुरु के भक्तों की भक्ति का कोई तोड़ नहीं है। गुरुभक्तों ने भी आज भीलवाड़ा जैसे विशाल कस्बे को यह अहसास करवा दिया कि हम कुमुद गुरु के जन्म स्थान की माटी में जन्में और पले-बढ़े है। जिस माटी ने सुजानमल जैसे छोटे से बीज को कुमुद जैसा विशाल वटवृक्ष बना दिया। हम किसी से कम तो नहीं ही हो सकते है। हा, हमसे जरूर कोई कम हो सकता है। गुरुभक्तों ने भी जब शांति भवन की जलन देखी, तब उनका सीना गर्व से चौड़ा हो गया।

मुम्बई से आए गुरुभक्त मुम्बई की तरफ प्रस्थान कर रहे थे और बाकी स्थानों से आए गुरुभक्त अपने-अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर रहे थे। कुछ गुरुभक्त भीलवाड़ा से नाथद्वारा (अहिंल्या कुंड) में विराजित गुरूवर रितेश मुनि जी म. सा. और गुरुवर प्रभात मुनि जी म. सा. के दर्शनार्थ नाथद्वारा की ओर प्रस्थान कर रहे थे, जिसमें मैं भी था।

कुछ घंटों के सफर के बाद हम नाथद्वारा पहुँचे। नाथद्वारा बस स्टेशन पर बस को पार्क करके हम अहिंल्या कुंड की तरफ पैदल ही चल पड़े। कुछ देर चलने के बाद नाथद्वारा के बाजार से होते हुए हम एक स्थानक में पहुंचे। यह वही स्थानक था, जहां गुरुवर अपने मुखारविंद से अमृतवाणी सुना रहे थे। स्थानक देखने पर बहुत ही पुराना लग रहा था, उसकी डिज़ाइन भी बहुत पुरानी थी। पर मजबूती अभी भी बहुत ही अच्छी थी। हम सभी ने मुख्य द्वार से अंदर प्रवेश किया और अपनी चरण पादुका को यथास्थान रखा और अंदर प्रवेश कर लिया। अंदर प्रवेश करते ही गुरूवर की अमृतवाणी सुनाई दी और गुरूवर के दर्शन हो गए। गुरूवर अपनी चिरपरिचित आवाज में अमृतवाणी फरमा रहे थे। जिससे कि एक बहुत ही आनंददायक वातावरण का निर्माण हो रहा था।

मैं भी गुरूवर को देखते ही अनायास ही गुरूवर की तरफ खींचता चला गया और गुरु के चरणों में अपने शीश को झुकाया कि गुरूवर ऐसे खुश हुए मानों उनका बहुत सालों का इंतज़ार आज खत्म हो गया हो। गुरूवर और मेरा यह मिलन आज भी याद आता है तो यू लगता है, जैसे यह अभी-अभी की बात है और मैं गुरूवर के चरणों में ही हूँ। उन्होंने मुझे अपने साथ ऐसे चिपका लिया कि मैं उस परिस्थिति का वर्णन भी नहीं कर सकता। उन्होंने जोर से मेरी पीठ थपथपाई।

गुरूवर अंदरूनी तो बहुत खुश हुए, पर कुछ ही समय में उन्होंने दिखावटी गुस्सा होते हुए मुझसे नाराजगी जताई और उनकी प्यारी और दिखावटी गुस्से वाली आवाज मेरे कानों में पड़ी..... प्रवीण! मैं तो तुझसे बात ही नहीं कर रहा हूँ। मैं बहुत नाराज हूँ तुझसे। जा मुझे कोई बात ही नहीं करनी तुझसे।

मैं गुरूवर की अंदरूनी भावना को समझ रहा था। गुरूवर की शिकायत के बावजूद मैं गुरूवर के सामने हाथ जोड़कर खड़ा मुस्कुरा रहा था और गुरूवर की अंदरूनी मुस्कान को महसूस कर रहा था। अब मैं गुरुवर की शिकायत का क्या जवाब देता? समझ तो मैं भी गया था, कि गुरूवर क्या कहना चाहते थे? पर गुरूवर के सामने बोलने की बजाय गुरूवर की अंदरूनी खुशी को महसूस करना एक बहुत ही रोमांचक अहसास था, जिसका मैं आनंद ले रहा था।

तभी गुरूवर का एक जोर का झन्नाटेदार सवाल मेरे से टकराया कि प्रवीण...! बता मैं तुझसे क्यों नाराज हूँ? और इस सवाल के साथ जैसे मेरी नींद टूटी। मैं अपने आप को संभालता हुआ गुरूवर के सवाल का जवाब देते हुए बोला कि गुरूवर...! मैंने आपके कड़ियाँ से विहार के दौरान आपसे वादा किया था कि मैं ज्यादा नहीं तो एक बार तो आपके चातुर्मास के दौरान नाथद्वारा अवश्य आऊंगा और आपके दर्शन करूँगा। पर मैं अब तक नहीं आ पाया। समय की कमी के कारण ऐसा हुआ और फिर गुरूवर कुछ कहते, उसके पहले ही अपना बचाव करते हुए सफाई देने लगा कि गुरूवर...! और वही वादा आज पूरा किया है मैंने। आज आपके श्रीचरणों में आ गया हूँ। गुरूवर मेरी ऐसी तर्कपूर्ण बात सुनकर मुस्कुरा दिए और मुझे अपने सीने से लगा लिया। गुरु-मिलन का यह दृश्य वहां विराजित सभी श्रावक-श्राविकाएं देख रही थी कि यह कौन गुरुभक्त है? जिसके साथ गुरूवर इतने मस्त होकर बातें कर रहे है और इधर मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था कि गुरूवर ने कैसे मुझे अपने सीने से लगाया और प्यार से झप्पी भी दे दी, जो मुझे आज भी याद आने पर मन रोमांचित हो उठता है।

गुरु-मिलन के बाद मैं गुरुवर को वंदन कर धर्मसभा में बैठे बाकी श्रावकों के साथ बैठ गया और गुरुवाणी का आनंद लेने लगा। यह धर्मसभा गुरूवर ने हमारे लिए ही आयोजित की थी। गुरूवर का यह प्यार और अपनापन देखकर अपने आप पर बड़ा गर्व हो रहा था कि ऐसे गुरूवर हमें मिलें। यह बहुत ही बड़ी पुण्याई का फल है।

कुछ समय गुरुवाणी श्रवण करने के पश्चात शाम के भोजन का समय हो गया था, तो गुरूवर ने हमें शाम का भोजन करने के लिए कहा और अपने मुखारविंद से महामांगलिक सुनाया। महामांगलिक के पश्चात हम गुरूवर को वंदन कर नाथद्वारा श्रीसंघ की तरफ से की गई शाम के भोजन की व्यवस्था का लाभ लेने वहां से कुछ ही दूरी पर भोजनशाला के लिए निकल पड़े। शायद भोजनशाला एक विद्यालय में थी और यह बिल्डिंग भी काफी पुरानी लग रही थी। वहां एक पुरानी घंटी (जो कि ट्रेन की पटरी के टुकड़े से बनी थी) लगी हुई दिखी, जिससे मैंने अंदाज लगाया कि यह एक छोटा विद्यालय है या था।

अहिल्या कुंड, नाथद्वारा में गुरुवर के वर्षावास में जो एक बात मुझे देखने को मिली, जो मैंने पहली बार किसी श्रीसंघ में देखी, वो यह थी कि वहां कार्यकर्ता या व्यवस्थापक के रूप में मात्र 5 लड़कियों को देखा। जो एक गौरवान्वित कर देने वाली बात भी है और समाज को एक संदेश भी, कि हम लड़कियां है तो क्या हुआ? हम भी लड़को से मुकाबला कर सकती है।

उन लड़कियों के नाम तो मुझे नहीं पता, पर उनका काम करने का तरीका बहुत पसंद आया मुझे। उनके द्वारा की गई व्यवस्था इतनी सुव्यवस्थित थी कि ऐसी व्यवस्था मैंने भी आज तक नहीं देखी। लड़को द्वारा की गई व्यवस्था से भी ज्यादा सुंदर और व्यवस्थित व्यवस्था थी उनकी। मुझे निजी तौर पर यह बहुत अच्छा लगा कि आज हमारे समाज की लड़कियां इतनी समझदार और जिम्मेदार है की पूरा श्रीसंघ उनके कन्धों पर जिम्मेदारी देकर निश्चिंत हो सकता है। यह बहुत ही खुशी और गौरवान्वित करने वाली बात है।

शाम के भोजन के बाद हम सभी गुरुभक्त नाथद्वारा से खुशी-खुशी अपने घर की तरफ निकलने के लिए अपनी बस की तरफ बढ़ गए और बस में बैठकर अपने गंतव्य की ओर निकल पड़े। बस में बैठकर जब पूरी यात्रा के दृश्यों को बन्द आंखों से देख रहा था, तो मन में एक अलग ही अहसास था, एक अलग ही शुकुन था, एक अलग ही शांति थी। मन एक अलग ही रोमांचक दुनिया में गोता लगाता प्रतीत हो रहा था और मैं सपनों की दुनिया में खो गया।..................!!!!

समाप्त!

एक ऐसा भव्य काफिला, जो अपने सौभाग्य को लेने चला..! भाग 03.

आज भाग 03. में आप पढ़ेंगे...! वस्त्रों की नगरी भीलवाड़ा में भोले बाबा की दीक्षा जयंती के हर्षोउल्लास और गुरुवर के आशीर्वाद के साथ प्रस्थान.

"गुरुवर फरमा दो ज्ञान की लड़ियाँ।
अगला चातुर्मास हो पक्का कड़ियाँ।।"

गुरुभक्तों का एक भव्य काफिला गुरुवर के गगनचुम्बी जयकरों के साथ एक बहुत बड़े जुलुष के रूप में शांति भवन, भीलवाड़ा में प्रवेश करता है, जहां विराजित म. सा. का ओजस्वी प्रवचन चल रहा था।

यह आवाज जानी पहचानी थी, कानों को सुहानी और मन मयूर को नाचने पर मजबूर कर देने वाली थी। इस आवाज में एक अलग ही ओज, एक अलग ही तेज, एक अलग ही मोटिवेशन था। इस आवाज के कानों पर पड़ते ही मानों ऐसे लग रहा था कि हम प्रकृति की गोद में आ गए है, जहां झरने गुनगुना रहे है और विभिन्न पक्षी अपनी मधुर आवाज में कोई गीत गा रहे है। इस आवाज के कानों पर पड़ते ही मैं भी मंत्रमुग्ध होने से अपने आप को नहीं रोक पाया और उस आवाज की तरफ ऐसे खींचता चला गया, मानों मेरे ऊपर से अपना पूरा नियंत्रण ही समाप्त हो गया हो। मैं अपने आप को उस आवाज के अधीन कर चुका था और बस सब कुछ उस आवाज को सौंप चुका था।

यह आवाज खुद गुरु कुमुद के प्रिय शिष्य, ओजस्वी वाणी के साधक, साधना के पुजारी, प्रखर वक्ता, युवा संत, सेवा रत्न, युवा मनीषी श्री कोमल मुनि जी म. सा. "करुणाकर" की थी। जो नाम से बड़े ही कोमल लेकिन आवाज से बड़े ही ओजस्वी है, प्रखर वक्ता है। जिनकी आवाज में वह जादू है कि भरी सभा को एक ललकार में मंत्रमुग्ध कर दे।

शांति भवन में एक जोर का नारा गुंजा और एक बार तो गुरु करुणाकर भी देखते रह गए कि आज गुरु कुमुद के भक्त बहुत ही जोश के साथ गुरु कुमुद को लेने आये है। उनकी खुशी तो उनके मुस्कुराते चेहरे पर साफ झलक रही थी, जैसे किसी बड़े सेठ को कोई मूल्यवान हीरा कौड़ियों के दाम मिल गया हो और यह सही भी है। गुरु कुमुद को तो इतने मूल्यवान हीरे बहुत संख्या में एक साथ मिल गए। यह सभी भक्त गुरु कुमुद के मूल्यवान हीरे ही तो है। जिन्हें गुरु कुमुद अपनी ज्ञान रूपी तिजोरी में हमेशा सुरक्षित रखते है। उन्हें समय-समय पर अपने ज्ञान से सुरक्षा देते रहते है और भक्तों के गगनचुम्बी जयकारों से ही यह पता चल रहा था कि वे अपने गुरु के कितने बड़े दीवाने है...!?

शांति भवन में एक शांति के माहौल में सिर्फ गुरु करुणाकर की आवाज थी, जिसे खुद शांति भवन भी बड़ी तल्लीनता से सुन रहा था, पर अचानक एक गगनचुम्बी नारा सुनाई दिया और शांति भवन की तल्लीनता जैसे टूट सी गई। वह एकाएक नींद से हड़बड़ाकर उठा, तो देखता क्या है कि गुरुवर के हीरे गुरुवर की तरफ खींचते आ रहे है। शांति भवन भी असमंजस की स्थिति में आ गया कि आज तो गुरुवर मुझे त्याग देंगे, क्योंकि खुद शांति भवन को भी इस गुरुभक्त के काफिले के जोश और भक्ति को देखने के बाद अपनी गुरुभक्ति पर मानो शक सा होने लगा। पर एक तरफ कही न कही शांति भवन के भी मन में हर्ष था, अपने आप पर गर्व हो रहा था कि इतने बड़े गुरु का सान्निध्य मुझे मिला और आज तो सोने पर सुहागा वाली कहावत चरितार्थ होती दिख रही है। क्योंकि गुरुवर के साथ आज तो गुरुवर के इतने सारे बहुमूल्य हीरो की आव-भगत का सौभाग्य भी मुझे मिला है। यह बहुत ही बड़ी पुण्याई जगी है आज तो....!

असंख्य हीरे एक-एक कर गुरु के चरणों में ऐसे समर्पित होते गए, जैसे कोई जौहरी किसी अंगूठी में एक पंक्ति में हीरे जड़ता जाता है। ऊपर से देखने पर एक जैसे लाल साफे ऐसे दिख रहे थे, मानो कही किसी बगीचे में कई गुलाब एक साथ खिल गए हो।
कुछ देर के अशांत वातावरण के बाद शांति भवन में कुछ शांति हुई और गुरुवाणी फिर से कानों के मार्ग से होती हुई सीधे मन की मलिनता को साफ करने में जुट गई। इस वाणी को सुनने के बाद मन को जैसे शुकुन सा मिला। सब गुरुभक्त बड़ी तल्लीनता से गुरुवाणी का श्रवण करने लगे।

आज गुरुवाणी के साथ ही एक और सौभाग्य गुरुभक्तों की भक्ति में चार चांद लगाने वाला था और वह था.... गुरु कुमुद के साथ हर घड़ी कदम से कदम मिलाकर चलने वाले, भक्तों के अतिप्रिय, सरल और शांत स्वभाव के धनी, साक्षात शिव स्वरूप, सरलमना, भोले बाबा, गुरु पथिक की 65वीं दीक्षा जयंती का एक छोटा सा कार्यक्रम, जिसको भक्तों ने अपनी भक्ति से एक विशाल रूप दे दिया।
पता नहीं क्यों.....!? 28 अक्टूबर, 2018 का दिन बड़ा ही ऐतिहासिक और यादगार दिन था, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। अगर कभी दीक्षा स्थल, कड़ियाँ का इतिहास लिखा जाएगा तो इस दिन को स्वर्णाक्षरों में अंकित किया जाएगा। शांती भवन के शांत वातावरण में एक ओजस्वी वाणी के बाद गुरुवर का गगनचुम्बी जयकारा......! यह सब एक बहुत ही रोमांचक माहौल के साथ चल रहा था, कि इसमें एक और रस गुल गया और वह रस था, गुरु भोले बाबा की 65वीं दीक्षा जयंती का। 28 अक्टूबर को गुरुवर भोले बाबा की दीक्षा जयंती का भव्य कार्यक्रम भी शांती भवन में प्रायोजित था। जिसने इस दिन के महत्त्व को कई गुना बढ़ा दिया।

गुरुवर के दीक्षा महोत्सव में भाग लेने वाले भक्त फूलें नहीं समा रहे थे। क्योंकि सरल स्वभावी, भक्तों के केंद्र बिंदु और गुरु कुमुद के हमेशा साथी रहे भोले बाबा अपनी दीक्षा जयंती के कार्यक्रम के पक्ष में कभी रहे ही नहीं। यह कार्यक्रम भी उनके लिए जैसे सरप्राइज था। इस छोटे से कार्यक्रम को इतना वृहद रूप मिल जाएगा, यह तो खुद गुरुवर ने भी नहीं सोचा था।

बहुत ही विशाल वटवृक्ष के समान दीक्षा जयंती कार्यक्रम के सम्पन्न होने के बाद गुरुभक्तों ने अपने गुरु का आशीर्वाद लिया और गौतम प्रसादी का लाभ लेने के बाद गुरुवर से विदाई लेने की रस्म अदा करने लगे। हर गुरुभक्त यही चाहता था कि गुरु के चरणों में सदा-सदा के लिए समर्पित हो जाए। पर कहते है न कि यह मौका भी बहुत पुण्याई के बाद मिलता है। शायद सभी गुरुभक्तों को ऐसा मौका नहीं मिलता। पर अगर ऐसा हो सकता तो गुरुभक्त गुरुचरणों को छोड़कर कही जाते ही नहीं।
गुरुभक्तों में एक तरफ खुशी और शांति का एहसास था तो दूसरी तरफ आंख से मानो आंसू ही निकलने वाले थे। कुछ खुशी थी तो कुछ बिछड़ने का गम भी था। पर जो सत्य है, उसे तो नहीं ही बदला जा सकता है। गुरुभक्त खुशी और गम के मिश्रित आंसू लेकर अपने आराध्य से विदा होने लगे। ऐसा लग रहा था, मानो आंधी आई और सबकुछ तहस-नहस कर चली गयी हो। शांति भवन का मन भी भर आया था, मानो वह अभी रो देगा। ऐसा लग रहा था, मानो वह रो-रोकर गुरुभक्तों को पीछे से आवाज दे रहा हो कि हे गुरुभक्तों...! मुझे छोड़कर मत जाओ। मै क्या करूँगा तुम्हारे बिना? रात को तुम्हारे बिना नींद कैसे आएगी मुझे? तुम्हारे बिना सबकुछ सुना हो जाएगा....

क्रमशः...

(आगे... भीलवाड़ा से प्रस्थान के बाद नाथद्वारा में गुरु-मिलन और ममतामयी नारी शक्ति के दर्शन)

पढ़ते रहिए, एक ऐसा भव्य काफिला, जो...... भाग 04.