Wednesday 14 November 2018

गुलाबी नगरी की मेरी पहली यात्रा की कुछ स्मृतियाँ भाग 07.

आज भाग 07 में आप पढ़ेंगे...! गोविंद देव जी का मंदिर की भव्यता और इससे जुड़े इतिहास का वर्णन.

गोविंद देव जी का मंदिर के मुख्य दरवाजे से प्रवेश करते ही बहुत सुखद और भक्तिमय वातावरण का सामना होता है। जहां हर तरफ भगवा झंडिया लगी हुई थी। मुख्य मंदिर की तरफ जाने के लिए विभिन्न पंक्तियां बनी हुई थी, जो कि एक विशाल मैदान जैसे भाग पर स्थित थी, उसी मैदाननुमा भाग पर कई धार्मिक वृक्ष भी लगे हुए थे, जिनकी श्रद्धालु पूजा-अर्चना कर रहे थे और कई उनको नमन कर आगे बढ़ रहे थे। मैं भी पीपल के पेड़ को नमन कर आगे बढ़ गया।
थोड़ा आगे बढ़ते ही मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुंच कर सीढ़ी पर नमन कर जैसे ही अंदर प्रवेश किया, एक बहुत बड़ी श्रद्धालुओं की भीड़ में मैं अपने आप को ही खोजने लग गया। मतलब वहां इतनी भीड़ थी कि अगर साथ वाले किसी साथी या बच्चें का हाथ छूट जाए तो मिलना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। उस भीड़ में श्रद्धालु अपने दोनों हाथ ऊपर कर कृष्ण भगवान का गान कर रहे थे, जो कि वहां के माहौल को एक भक्तिमय रंग से रंगीन कर रहा था। मैं भी उस भीड़ में घुस गया और गोविंद देव जी के दर्शनार्थ भीड़ से संघर्ष करने लग गया। मेरे एक हाथ में मोबाइल और दूसरे हाथ में प्रसाद और चढ़ावा होने की वजह से थोड़ी परेशानी महसूस हुई, पर यह परेशानी ज्यादा देर नहीं टिक पाई। क्योंकि मुझे तो गोविंद देव जी के दर्शन करने थे और बिना संघर्ष या तपस्या के तो भगवान मिलते नहीं। अंततः मैं मंदिर में विराजित गोविंद देव जी और राधा जी की मूर्ति के बाहर लगी रेलिंग तक पहुंच गया और उनकी अलौकिक प्रतिमा के दर्शन कर अपने आप को बड़ा ही प्रफुल्लित महसूस करने लगा। वहां की सबसे अच्छी बात यह थी कि मोबाइल पर प्रतिबंध नहीं होने से हम फोटोशूट कर सकते है और वहां की यादों को संजो कर रख सकते है। जो कि मैंने बहुत अच्छे से किया। वैसे भी मुझे फोटोग्राफी का बहुत शौक है और वहां प्रतिबंध नहीं होना मेरे लिए दौहरी खुशी का कारण बन गया, जो कि मेरे लिए एक रोमांचक अहसास भी था।
मैं मुख्य मंदिर में विराजित गोविंद देव जी के दर्शनार्थ वहां लगी पंक्ति में जुड़ गया और इंतज़ार करने लगा। थोड़ी देर में मेरा इंतज़ार पूर्ण हुआ और मैं मुख्य मंदिर में विराजित गोविंद देव जी और राधा जी की मनोहारी छटा बिखेरती और असली प्रतीत होती मूर्ति के सामने पहुंच गया और नमन कर प्रसाद पास ही रखी एक टोकरी में रखा। वहां पर प्रसाद नहीं चढ़ाया जाता। यह जानकारी मुझे अंदर जाने के बाद वहां की व्यवस्था संभाल रहे एक सुरक्षा कर्मी द्वारा पता चली। कोई भक्त जानकारी के अभाव में प्रसाद ले आता है तो वहां एक टोकरी रखी है, उसमें वह प्रसाद रख दिया जाता है। उस टोकरी के पास एक पंडित जी बैठे रहते है। मैंने भी वह प्रसाद उस टोकरी में रखकर प्रणाम कर आगे बढ़ गया। पर उन पंडित जी ने आवाज देकर मुझे बुलाया और अत्तर तो उन्होंने वही रख लिया और मिश्री की थैली में कुछ तुलसी पत्र डालकर मुझे वह थैली दे दी। इसके बाद मैं मंदिर की परिक्रमा करने लगा तो मंदिर के पीछे जाने पर वहां का नजारा देखकर मन खुश हो गया। बहुत ही सुंदर नजारा था वह।
क्रमशः...

(आगे... मेरी जयपुर यात्रा की कुछ यादगार झलकियां)
पढ़ते रहिए, गुलाबी नगरी की......... भाग 08.

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