Wednesday 20 April 2016

क्या मृत्युभोज सही है...???

जिस परिवार में किसी की मृत्यु रूपी विपदा आई हो। उसके साथ इस संकट की घड़ी में जरूर खड़े रहे और तन, मन, धन से सहयोग करे। लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि आप मृतक के घर ही खाने भी बैठ जाएं। मृत्युभोज एक सामाजिक बुराई है और इसे जड़-मूल से नाश करना होगा और यह संभव है हम सब के एक साथ विरोध से। इस सामाजिक बुराई को हमें मिलकर ही नष्ट करना होगा।

अब सबसे पहले आपको ये समझना होगा कि आखिर मृत्युभोज है क्या?
तो इसका जवाब आप सभी को पता ही है और वो है... किसी ऐसे घर का अन्न, जिस घर में किसी की मृत्यु हुई हो, और उस मृत्यु को धर्मानुसार विदित दिवस नहीं हुए हो। उस घर के किसी भी प्रकार के अन्न या खाद्य पदार्थ को मृत्युभोज ही कहा जायेगा या उस मृतात्मा की मृत्यु के कारण हो रहे किसी भी आयोजन के खाद्य पदार्थ को भी मृत्युभोज की श्रेणी में ही रखा जायेगा।

हिन्दू धर्म और मृत्युभोज...
हिन्दू धर्म के महाग्रंथ "महाभारत" में भी इस बात का जिक्र है।
महाभारत युद्ध होने का था। अतः श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जा कर युद्ध न करने के लिए संधि करने का आग्रह किया, तो दुर्योधन द्वारा आग्रह ठुकराए जाने पर श्री कृष्ण को कष्ट हुआ और वह चल पड़े, तो दुर्योधन द्वारा श्री कृष्ण से भोजन करने के आग्रह पर श्री कृष्ण ने दुर्योधन से कहा कि......
’’सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’’
हे दुयोंधन!! जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए। लेकिन जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के दिल में दर्द हो, वेदना हो। तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए।

महाभारत के अनुशासन पर्व में तो यह भी लिखा है कि मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है। लेकिन जिसने जीवन-पर्यन्त मृत्युभोज खाया हो, उसका तो ईश्वर ही मालिक है।

इसीलिए महार्षि दयानन्द सरस्वती, पं. श्रीराम शर्मा, स्वामी विवेकानन्द जैसे महान मनीषियों ने मृत्युभोज का जोरदार ढंग से विरोध किया है।

हिन्दू धर्म में मुख्य 16 संस्कार बताए गए है। जिसमें प्रथम संस्कार गर्भाधान एवं अन्तिम (16वाँ) संस्कार अन्त्येष्टि है। इस प्रकार जब सत्रहवाँ संस्कार बनाया ही नहीं गया तो सत्रहवाँ संस्कार (तेरहवीं संस्कार) कहाँ से आ गया?

इससे यह साबित होता है कि तेरहवी संस्कार समाज के चन्द चालाक लोगों के दिमाग की उपज है। बाकि किसी भी धर्म ग्रन्थ में मृत्युभोज का विधान नहीं है।

जिस भोजन को बनाने का कृत्य (जैसे: लकड़ी फाड़ी जाती हो तो रोकर, आटा गूँथा जाता हो तो रोकर, पूरी बनाई जाती हो तो रोकर यानि हर कृत्य) आँसुओं से भीगा हो। ऐसे आँसुओं से भीगे निकृष्ट भोजन, तेरहवीं का भोज या मृत्युभोज मानव जाति के लिए ही नहीं अपितु समस्त प्राणियों के लिए जहर समान है। इसलिए मृत्युभोज का पूर्ण रूप से बहिष्कार होना चाहिए।
हमारे धर्म-गुरुओं ने भी यही फ़रमाया है।

जानवरों से सीखें मृत्युभोज का विरोध...
आपने देखा होगा कि जिस जानवर के साथी की मृत्यु हो गयी हो या वो बिछुड़ गया हो तो वह जानवर अपने प्यारे साथी के वियोग में पूरा दिन बिना कुछ खाये ही निकल देता है।
जबकि 84 लाख योनियों में श्रेष्ठ मानव, जवान आदमी की मृत्यु पर हल्वा पूरी खाकर शोक मनाने का ढ़ोंग रचता है।
इससे बढ़कर निन्दनीय कोई दूसरा कृत्य और क्या होगा...??

यदि आप इस बात से सहमत हों, तो आज से ही संकल्प लें कि आप किसी का भी मृत्युभोज ग्रहण नहीं करेंगे।

आप सभी सम्मानित व्यक्तियों से मेरा परम् आग्रह है कि आप जिस किसी भी सामाजिक ग्रुप से जुड़े हो, वहा मृत्युभोज का विरोध अवश्य करे और इस सामाजिक बुराई को जड़ से उखाड़ फेंके।

मेरे इस समाजहित में लिखे आर्टिकल का गलत मतलब ना निकालते हुए आप सभी एक-जूट होकर इस सामाजिक बुराई का विरोध कर इसे सभ्य समाज से बाहर का रास्ता दिखाए।

आपके सकारात्मक सहयोग की अपेक्षाओं के साथ.....

आपके ही समाज का एक सदस्य:
श्री पी. सी. सिंघवी,
कड़ियाँ।
+91-9819715012.

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