Friday 19 February 2016

जैन धर्म में एकता की स्थिति...

   भगवान् महावीर स्वामी ने एकता पर जोर दिया था। भगवन् ने फ़रमाया है कि बिना भेदभाव के सभी जीवों से प्यार करो। एकता में बहुत ताकत होती है। एकता की ताकत से बड़ी से बड़ी परिस्थितियों से निपटा जा सकता है। ये वो शक्ति है, जिससे निर्बल भी सबल बन जाता है।
  
   आजकल अपने जैन धर्म में एकता की कमी देखी जा सकती है। इसका सबसे अच्छा और सटीक उदाहरण है... जैन धर्म में पर्युषण महापर्व और संवत्सरी का अलग-अलग होना। जैन धर्म में संवत्सरी तीन होती है। श्वेताम्बर में दो और दिगंबर में एक। आपने कभी किसी और धर्म में एक त्यौहार को अलग-अलग मनाते देखा है क्या???

   हिन्दू धर्म में दीवाली, होली, राखी, मुस्लिम धर्म की ईद, ईसाई धर्म में क्रिसमस आदि ऐसे कई उदाहरण है जो अपने धर्म की एकता के बहुत ही बड़े उदाहरण है।

   क्या आपने इन धर्मों में एक त्यौहार को अलग-अलग मनाते देखा है???

   नहीं ना। तो फिर हमारे जैन धर्म में ही ऐसा क्यों होता है कि जो पर्व साथ में मिलकर मनाना चाहिए, वो हम अपने हिसाब से अलग-अलग मनाते है।

   कुछ समय पहले मैंने इस विषय पर एक जैन मुनि जी से विचार-विमर्श किया था। जिनका यहाँ नाम लेना में उचित नहीं समझता। इसलिए उनका नाम तो नहीं लूंगा, पर जो उन्होंने मुझे बताया। वो जरूर आपको बताना चाहूँगा।

   मैंने जैन एकता विषय पर मेरे कुछ विचार उनके साथ साजा करते हुए कहा कि ये महापर्व जब से शुरू हुआ, तब से तो अलग-अलग नहीं मनाया जाता रहा है। फिर ये अलग कैसे हुआ? कोई तो इसका कारण रहा होगा, जो मुझे नहीं पता। आप मुझे इस विषय को अपने विचारो से समझाए।

   तो उन्होंने बहुत ही सुन्दर उदाहरण से मुझे समझाते हुए कहा कि एक पिता की चार संतान होती है। जब तक ये चार संतान बड़ी नहीं हो जाती, तब तक तो एक परिवार में ही रहती है। मतलब वो एक परिवार कहलाता है। पर जब ये ही चार संतान बड़ी हो जाती है, तो उनकी भी संताने हो जाती है और उनके चार अलग-अलग परिवार बन जाते है। अब समय के साथ ये चार संतान अपने पिता की जो भी संपत्ति होती है उनका भी चार हिस्सों में विभाजन कर लेती है और इस तरह एक ही संपत्ति और परिवार के चार हिस्से हो जाते है। ठीक इसी प्रकार अपने जैन धर्म में भी हुआ है।

   मुझे बात तो समझ में आ गयी और ख़ुशी भी थी कि जो आज तक मुझे नहीं पता था। उसका ज्ञान मुझे मुनि श्री के आशीर्वाद से प्राप्त हो गया। परंतु मुझे उस विभाजन का दुःख भी है, जो हम आज तक देख रहे है और ना जाने कितनी पीढियां इस विभाजन को यु ही देखती रहेगी।

   इस बात को समझने के बाद मैंने मुनि श्री से एक और सवाल पूंछा कि क्या अपने जैन धर्म में ऐसा कोई सामाजिक कार्यकर्ता नहीं हुआ, जिसने इस ओर सबका ध्यान आकर्षित किया हो या कोई बड़े मुनि जी भी तो इस विभाजन को एक कर सकते थे। तो आज तक ऐसा क्यों नहीं हुआ?

   तो उन्होंने मुझे मेरी असमंजस की स्थिति से बाहर निकालते हुए समझाया कि ऐसी कोई बात नहीं है। एक नहीं, ऐसे कई सामाजिक कार्यकर्त्ता हुए है, जिन्होंने इस विषय पर काफी अध्ययन किया, समारोह किये, बहुत प्रयास भी किये। हमारे मुनियों ने भी कई सभाएं की, आपस में मिलकर बहुत प्रयास किए। पर उसका रिजल्ट कुछ भी नहीं निकला। आज तक प्रयास चल रहे है, पर इसका अभी तक कोई ठोस निर्णय नहीं निकला है। भविष्य में आसार के बारे में अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

   हर धर्म में धार्मिक लोग भी होते है और अधार्मिक लोग भी होते है। अच्छाई और बुराई तो संसार का नियम है। जब भगवान का अवतार हुआ, तब भी अच्छाई और बुराई इस दुनिया में विद्यमान थी, आज भी विद्यमान है और आने वाले समय में भी विद्यमान रहेगी। इसे जड़ से कोई भी नहीं उखाड़ सकता।

   हर धर्म के टुकड़े हुए है। ये आप सब भी मानते है और मै भी मानता हूँ। पर इसका ये मतलब नहीं है कि त्यौहारों और पर्वो के भी टुकड़े कर दिए जाए। ये टुकड़े धर्म को विभाजित ही करते है और धर्म के विभाजन से ही मानव जाति विभाजित हुई है।

   आपने कभी किसी जानवर को विभाजित देखा है?

   नहीं ना। तो कभी ये सोचो कि विभाजन हमेशा मानव जाति में ही क्यों होता है? बाकि किसी प्राणियों में तो विभाजन के लिए इतना संघर्ष नहीं होता। मानव जाति के आलावा किसी जाति में अगर विभाजन हुआ भी होगा तो वो उनकी मानसिकता के कारण नहीं अपितु प्राकृतिक कारण से हुआ होगा। आपको यकीन नहीं हो तो एक बार इतिहास पढ़ लो। पता चल जायेगा।

   जैसा कि मैंने पहले ही कहा था कि अच्छाई और बुराई प्रकृति का नियम है। उसी तरह जैन धर्म में कई बुराइयों के बावजुद अच्छाइयों की भी कमी नहीं है। जैन धर्म में एकता की कमी के साथ कभी-कभी एकता स्थापित करने के प्रयास भी हुए है या यु कहे कि ऐसे मौके भी आये है, जब जैन धर्म में एकता की झलक देखने को मिली।

   ईसका ताज़ा उदाहरण: जैन धर्म की बहुत पुरानी "संथारा प्रथा" पर राजस्थान हाइकोर्ट ने बेन लगा दिया था। इसमें कोर्ट का आर्डर था कि जो भी संथारा ले और दे। दोनों को ही गिरफ्तार कर लिया जाये। जिसमें सज़ा का प्रावधान भी था। हाइकोर्ट ने संथारा को आत्महत्या करार दिया था। जबकि आप सभी जानते है कि संथारा कोई आत्महत्या नहीं अपितु ये एक धर्म का हिस्सा है। इससे कई धार्मिक लाभ है, जो मानव जन्म की गति सुधारने के लिए एक धार्मिक कर्म है।

   इस हाइकोर्ट के फैसले के विरोध में पुरे भारत के जैन धर्म को एक अलग ही माला की डोर में पिरोये मोतियों की तरह देखा। यह पल एक अलग ही ख़ुशी देने वाला पल था। जिसको आज भी याद करता हूँ, तो गर्व से सर उठ जाता है। जैन होने पर अपने आप को खुशकिस्मत समझता हूँ। एक अलग ही एहसास होता है। 24 अगस्त, 2015 की वो जैनियों की अहिंसा रैली और भारत बंध की याद आज भी मेरे जहन में ताजा है। मैंने भी इस अहिंसा रैली में भाग लिया था।

   इसमें ओर ख़ुशी और गर्व की बात तो ये थी कि ये जुलुस जैन धर्मानुसार निकाले गए। अहिंसा के आधार पर निकाले गए। ना कही तोड़-फोड़, ना ही नारेबाजी और ना ही किसी सार्वजनिक व्यवस्था को अव्यवस्थिक किया, ना कोई माहोल ख़राब किया और इस मौन जुलुस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने हाइकोर्ट के फैसले पर बेन लगा दिया। इस तरह अहिंसा की जीत हुई और ये पूरी दुनिया ने देखा। इससे एक फायदा तो ये हुआ कि कोर्ट भी मान गयी कि जैन धर्म वाकई अहिंसा वादी धर्म है। दूसरा ये हुआ कि अपनी बात भी मनवा ली और देश की व्यवस्था में भी कोई खतरा नहीं बना जैन धर्म। इससे देश को भी कोई नुकसान नहीं हुआ। पहली बार पूरी दुनिया ने जैन धर्म की अहिंसा का लोहा माना। ये अपने आप में बहुत गर्व की बात है।

   अगर ऐसी एकता हर जगह बन जाये तो ये धर्म कही गुना आगे बढ़ सकता है और भारत देश के विकास में अपना अमूल्य योगदान और कही ज्यादा दे सकता है और हम सब जब मिलकर प्रयास करेंगे तो अपने देश को विश्व-शक्ति बनने से कोई भी रोक नहीं सकता। अब इससे ज्यादा और क्या ख़ुशी की बात हो सकती है कि अपने योगदान से अपना देश तरक्की करे। आगे बढे और एक नयी अर्थव्यवस्था बनकर विश्व के सामने अपनी मिशाल कायम करे।

   मेरा आप सभी जैन भाइयो और बहनों से निवेदन है कि आप सब इस और थोडा ध्यान दे और जैन एकता स्थापित करने में अपना अमूल्य योगदान दे। अपनी आपसी रंजिसो को भूलकर हम सबको एक साथ, एक मंच पर खड़ा होना होगा। तालमेल के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना पड़ेगा। एक-दूसरे का सपोर्ट करना पड़ेगा। आपसी भेदभाव भुलाकर एक-दूसरे को गले लगाना पड़ेगा और जब ये सब हो गया तो समझो अपना जीवन धन्य हो गया।

   मेरे इस आर्टिकल के लिखने की वजह ये है कि मेरी एक दिली तमन्ना है कि जैन धर्म का महापर्व पर्युषण और संवत्सरी एक हो जाये और सब जैन आपस में मिलकर बिना भेदभाव के रहे।

   मेरे विचार किसी को अच्छे और किसी को बुरे भी लगे होंगे। ये मेरे अपने विचार है। फिर भी किसी को कोई बात बुरी लगी हो तो मै उनसे माफी चाहता हूँ।
मन, वचन, काया से मिच्छामिदुक्कडम्!!!

।।जय जिनेन्द्र।। ।। जैनम् जयति शासनम्।।

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