Saturday 11 June 2016

आज भी हमारे जैन समाज में कुछ अप्राकृतिक और हिंसक रीति-रिवाजों पर प्रतिबन्ध नहीं है। जो हमारे सभ्य समाज और जैन होने के नाते शर्म की बात है। इन रीती-रिवाजों पर मेरे मन की व्यथा को व्यक्त करता यह लेख.....

सबसे पहले तो आपके मन में एक ही सवाल उठ रहा है कि जैन समाज में ऐसे कौन-कौनसे रीती-रिवाज है, जो अप्राकृतिक और हिंसक है? और उन्हें अप्राकृतिक और हिंसक कहना कहा तक उचित है?

जिसका जवाब मेरे शब्दों में जानने के लिए कृपया मेरा यह लेख पूरा पढ़ें और अंत में इस विषय पर अपने विचार भी सबके साथ साज़ा करे....

जैसा कि आप सभी सदस्यों को तो पता ही है कि हमारा धर्म एक अहिंसक धर्म है। अहिंसा जैन धर्म का मुख्य सन्देश है। जिस पर अहिंसा के अवतार भगवान् महावीर स्वामी ने भी बहुत ही अच्छी-अच्छी बातें फ़रमाई है और अपने गुरुजनो ने भी अहिंसा के सन्देश को जन-जन तक पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हम यु कहे कि जैन धर्म का मतलब ही अहिंसा है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
आज अपने समाज में अहिंसा के बारे में बहुत-सी बाते की जाती है। यहाँ तक कि जमीं पर एक चींटी भी नजर आ जाये तो हम वहां चाहकर भी पैर नहीं रखते और दूसरी तरफ हम समाज में कुछ ऐसी हरकते करते है, जिससे कुछ ही समय में अनगिनत अबोल जीव अपना जीवन खो देते है।
क्या इन जीवों की मौत से हमें हिंसा का पाप नहीं लगता?
क्या यही है हमारा अहिंसक जैन-धर्म? या
क्या मन-वचन-काया वाला सिद्धांत समय के साथ बदल गया?
(इन तीनों सवालों पर कभी मनन करना। अगर आपका दिल अंदर से ना हिल जाए तो मुझे कहना।)

मैं बात कर रहा हूँ, अपने समाज में विभिन्न मांगलिक कार्यक्रमों पर अपनी थोड़ी सी ख़ुशी के लिए या यु कहे कि थोड़े से दिखावे के लिए युवाओं द्वारा की जाने वाली "आतिशबाजी" की।
(आपको यह जानकर ख़ुशी और गर्व होगा कि मैंने आग से चलने वाले पटाखें पिछले करीब 15 साल से नहीं चलाए। मेरी नजर में यह सही नहीं है। इसलिए मैं इन्हें नहीं चलाता।)

सबसे पहले मैं आग से जलने वाले पटाखों से होने वाले विभिन्न नुकसान के बारे में विस्तार से बात करना चाहूँगा। जो इस प्रकार है....

आपको तो पता ही है कि आतिशबाजी से होने वाले धुएं से कार्बन-डाई-ऑक्साइड गैस निकलती है। जो कि समस्त जीव जगत के लिए जानलेवा है। प्रकृति में इसका जितना ज्यादा उत्सर्जन होगा, उतना ही ज्यादा हमें या अन्य जीवों को श्वास से सम्बंधित तकलीफ होंगी। इसका सबसे अच्छा उदाहरण दमा जैसी बीमारी के मरीजो की लगातार बढ़ती संख्या है।

आपको शायद पता होगा कि प्रकृति ने जो मानव को सुनने की क्षमता दे रखी है, उसकी भी एक निश्चित मात्रा तय है। जो कि 85 डेसिबल है। मतलब कि मानव के कान 85 डेसिबल तक की ध्वनि सुनने के लिए ही बने है। इससे ज्यादा डेसिबल की ध्वनि मानव जाती के लिए अभिशाप है, एक तरह का जहर है। जिसे हम धीमा जहर (Slow Poison) भी कह सकते है। इससे विभिन्न बीमारियाँ होने का खतरा बढ़ जाता है। अब आप सोचिए कि एक मानव जो की इतना सहनशील और मजबूत होता है, फिर भी वह 85 डेसिबल की ध्वनि ही सहन कर सकता है तो छोटे जीवों की क्या हालत होती होंगी? जैसे: छोटी चिड़िया, विभिन्न छोटे पक्षी और अन्य छोटे जीव।
और आपको शायद पता होगा कि इस प्रकृति में असंख्य छोटे जीव ऐसे भी है जिनकी सुनने की शक्ति इतनी कमजोर होती है कि थोड़ी-सी भी ज्यादा आवाज से उनकी मौत हो जाती है।

आज चारों तरफ पेड़ कम होते जा रहे है। जिससे प्रकृति द्वारा प्रदत्त जीवन दायिनी ऑक्सीजन गैस का उत्सर्जन भी कम होता जा रहा है। आपको पता है कि समस्त जीवों को जीने के लिए ऑक्सीजन गैस की ही जरुरत होती है और ऑक्सीजन गैस का उत्सर्जन स्थल एक मात्र पेड़-पौधें ही है। दूसरा कोई विकल्प नहीं है और आतिशबाजी से होने वाले प्रदुषण से पेड़-पौधें भी अछूते नहीं है।

आतिशबाजी का रिवाज होने से इस पर खर्च भी होता है। जो फिजूलखर्ची के अलावा कुछ भी नहीं है। अब जो गरीब है। जो मांगलिक कार्यक्रम का खर्च भी बड़ी मुश्किल से उठा पा रहा है। पर वो एक-दूसरे को देखकर दिखावे में ऐसे खर्च करता है। जिससे किसी ना किसी रूप में समाज में प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है। जो एक सभ्य समाज के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता।

अब "आतिशबाजी" के खर्च को बचाकर इसका सदुपयोग भी तो किया जा सकता है। पर कैसे?
आइए इसे एक उदाहरण से समझते है...

मेरा जहा तक सोचना है। एक मांगलिक कार्य में आतिशबाजी का खर्च ₹5000 तो हो ही जाता है। इससे ज्यादा ही होता है, पर हम ₹5000 ही मान लेते है। अब ये किसी साधारण मानव के लिए बहुत बड़ी रकम होती है और दूसरी बात इस रकम से मांगलिक कार्य का एक छोटा-सा हिस्सा पूरा हो सकता है। जैसे कि आमंत्रण पत्रिका का खर्च।

और दूसरा ऐसे खर्च करने की बजाए इन ₹5000 को जैन समाज के किसी खाते में डिपॉज़िट करवा दे या जीव दया जैसे किसी अच्छे कार्य में लगा सकते है, तो ज्यादा अच्छा है। क्योंकि इससे समाज की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी और किसी को नुकसान भी नहीं होगा।

इसका तीसरा विकल्प यह भी हो सकता है कि इन ₹5000 से किसी जरूरतमंद की मदद भी की जा सकती है। इससे दो तरफा पूण्य का फल मिलेगा।

चौथे विकल्प के रूप में हम इन ₹5000 से कम से कम 50 पेड़ तो लगा ही सकते है। एक पौधें की कीमत ₹80 मान लेते है और ₹20 उसके साथ होने वाले खर्च के लिए पकड़ सकते है। मतलब कि एक पेड़ लगाने तक का खर्च सिर्फ ₹100 होगा और जरुरी नहीं है की हर व्यक्ति 50 पेड़ ही लगाए। अपनी इच्छा से इस संख्या को कम या ज्यादा भी तो कर सकता है।

आतिशबाजी सुनकर ही आपके दिमाग में मैं जो कहना चाहता हूँ, वह सारी बातें आ गयी होंगी। पर दिमाग में आने से या इस बात पर शोक या दुःख व्यक्त करने मात्र से ही यह बदलाव नहीं आएगा। अपने समाज के वरिष्ठजनों को आगे आकर ऐसे रिवाजों पर प्रतिबन्ध लगाना होगा। वैसे यह काम बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था। पर जब इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया तो मुझे लगा कि मुझे आप सभी सदस्यों का इस ओर ध्यान खींचना चाहिए। इसी उद्देश्य से मैंने यह लेख लिखा। ताकि आप सभी का ध्यान ऐसे अप्राकृतिक रिवाजों पर जाये और इन पर प्रतिबन्ध लगाकर जैन धर्म के सिद्धान्तों को समाज में हकीकत का अमली-जामा पहनाया जा सके।

और वैसे भी जैन संघ, कड़ियाँ जैसा छोटा सा संघ अगर "परुषाप्रथा" जैसी कुप्रथाओ को रोक सकता है तो "आतिशबाजी" जैसी प्रथा को रोकना कोई बड़ी बात नहीं है। बस इसके लिए सबको आगे आना होगा और एकझुठ होकर इसको जड़ से उखाड़ फैंकना होगा। तब जाकर ऐसे अप्राकृतिक रिवाजों पर प्रतिबन्ध लगाना संभव हो पायेगा।

(यह मेरे अपने विचार है। सबके विचार भिन्न हो सकते है। पर आतिशबाजी का कोई फायदा नहीं गिना सकता। मेरे इस लेख का मकसद समाज में वर्षों से चले आ रहे कुरिवजों को रोकना है, जो कही न कही समय की भी मांग है। इस विषय पर आपके विचारों का स्वागत करता हूँ। कृपया अपने विचार मुझे भेजने का कष्ट करे।)

मेरा लेख पढ़ने और इस विषय को समझने के लिए धन्यवाद!
जय जिनेन्द्र।

आपके समाज का सदस्य:
श्री पी. सी. सिंघवी, कड़ियाँ।
फ़ोन: +91-9819715012 (मो.)

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